भारत और पाकिस्तान के रिश्ते विभाजन के साथ ही संघर्ष की नींव पर खड़े हो गए थे। दोनों देशों ने आज़ादी के बाद चार युद्ध लड़े, जिनमें से हर युद्ध ने उपमहाद्वीप की राजनीति, कूटनीति और जनमानस को गहराई से प्रभावित किया। इस तनावपूर्ण रिश्ते में जब तीसरे देश की भूमिका जुड़ती है, विशेषकर अमेरिका जैसी महाशक्ति की, तो परिस्थिति और भी पेचीदा हो जाती है। डोनाल्ड ट्रम्प जब अमेरिका के राष्ट्रपति बने, तो दक्षिण एशिया की यह पुरानी सियासी शतरंज अचानक नई चालों से भर गई। उनकी अनूठी राजनीति, बयानों की विचित्र शैली और ‘अमेरिका फर्स्ट’ दृष्टिकोण ने एक नई प्रकार की अनिश्चितता को जन्म दिया, जिसे हम इस लेख में ‘ट्रम्प ट्रम्प कार्ड’ कहकर विश्लेषित कर रहे हैं।
भारत और पाकिस्तान की भौगोलिक निकटता और ऐतिहासिक रंजिश ने दोनों देशों के बीच अविश्वास को इतना गहरा कर दिया है कि युद्ध की संभावना हमेशा सतह के नीचे दबी रहती है। हर बार जब सीमा पर कोई आतंकी घटना होती है, या दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने होती हैं, तब दुनिया सांस रोककर देखती है कि कहीं यह टकराव युद्ध में न बदल जाए। इस पूरे परिदृश्य में डोनाल्ड ट्रम्प जैसे नेता की भूमिका केवल एक कूटनीतिक प्रतिनिधि की नहीं, बल्कि एक ऐसे खिलाड़ी की हो जाती है, जिसके पास शांति या युद्ध की दिशा मोड़ने की ताकत है।
ट्रम्प के कार्यकाल में अमेरिका की विदेश नीति पारंपरिक ढर्रे से हटकर दिखाई दी। उन्होंने व्यक्तिगत रिश्तों को राजनीतिक गठजोड़ की कुंजी माना। नरेंद्र मोदी और डोनाल्ड ट्रम्प के बीच गर्मजोशी भरे संबंधों को ‘Howdy Modi’ और ‘Namaste Trump’ जैसे भव्य आयोजनों ने सार्वजनिक मंच पर स्थापित किया। ये आयोजन महज दिखावे नहीं थे, बल्कि यह संकेत भी थे कि भारत और अमेरिका के रिश्ते एक नई ऊँचाई पर हैं। ट्रम्प ने चीन के खिलाफ भारत की रणनीतिक भूमिका को सराहा, उसे रक्षा समझौतों के ज़रिए मजबूत किया, और भारत को एक भरोसेमंद साथी के रूप में प्रस्तुत किया।
लेकिन दूसरी ओर, ट्रम्प का पाकिस्तान को लेकर रुख अस्थिर और अवसरवादी रहा। एक तरफ उन्होंने पाकिस्तान को ‘झूठ और धोखे’ का पर्याय बताया और सैन्य सहायता रोक दी, वहीं दूसरी तरफ अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी के लिए इमरान खान से हाथ मिलाया। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान को व्हाइट हाउस बुलाना, कश्मीर पर मध्यस्थता की पेशकश करना और तालिबान वार्ता में पाकिस्तान की भूमिका को सराहना करना—ये सभी घटनाएं बताती हैं कि ट्रम्प की प्राथमिकता स्थिरता नहीं, बल्कि सौदेबाज़ी थी।
यदि कल्पना करें कि भारत और पाकिस्तान के बीच किसी बड़े आतंकी हमले या सैन्य झड़प के कारण युद्ध की स्थिति बनती है, तो यह क्षेत्रीय युद्ध नहीं रहेगा। दोनों देशों के पास परमाणु हथियार हैं और यह युद्ध पूरे विश्व को प्रभावित कर सकता है। ऐसे में अमेरिका की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है, और ट्रम्प जैसे नेता का दृष्टिकोण निर्णायक साबित हो सकता है।
ट्रम्प युद्ध को कभी भी केवल कूटनीतिक संकट नहीं, बल्कि एक रणनीतिक अवसर के रूप में भी देख सकते हैं। उनकी व्यापारिक पृष्ठभूमि इस बात की इजाजत देती है कि वह सैन्य संकट को हथियार सौदों, रणनीतिक दबाव और प्रचार अवसर के रूप में देखें। भारत और पाकिस्तान दोनों ही अमेरिकी रक्षा उपकरणों के ग्राहक हैं। युद्ध की स्थिति अमेरिका के लिए हथियारों की बिक्री बढ़ाने का अवसर बन सकती है। ट्रम्प इस स्थिति को ‘कंट्रोल्ड वार’ की तरह देखने का प्रयास कर सकते हैं—जहां दोनों देश लड़ते रहें, लेकिन अमेरिका की मध्यस्थता के बिना कोई निर्णायक परिणाम न निकले।
इसके साथ ही, ट्रम्प की वैश्विक छवि एक ऐसे नेता की रही है जो खुद को ‘शांति पुरुष’ के रूप में दिखाना पसंद करता है। उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग उन से लेकर अफगान तालिबान तक, ट्रम्प ने कई बार ऐसी बैठकों और प्रस्तावों का आयोजन किया जिनका उद्देश्य उन्हें वैश्विक मंच पर मध्यस्थ और समस्या समाधानकर्ता के रूप में प्रस्तुत करना था। भारत-पाक युद्ध की स्थिति में ट्रम्प एक बार फिर ‘नोबेल शांति पुरस्कार’ के लिए अपनी छवि गढ़ सकते हैं। वह दोनों देशों को वार्ता की मेज़ पर लाने का प्रयास करेंगे, जिसमें उनका उद्देश्य केवल शांति नहीं, बल्कि ग्लोबल मीडिया में छा जाना होगा।
मीडिया ट्रम्प की राजनीति का एक बड़ा हथियार रहा है। वह मीडिया कवरेज के लिए कभी विवादित बयान देते हैं, कभी नाटकीय फैसले लेते हैं। युद्ध जैसे संकट में ट्रम्प की भूमिका जितनी कूटनीतिक होगी, उतनी ही नाटकीय भी हो सकती है। वह यह दावा कर सकते हैं कि “अगर मैं न होता तो तीसरा विश्व युद्ध हो जाता।” इस प्रकार, ट्रम्प युद्ध को रोकने के बहाने अपने प्रचार अभियान को आगे बढ़ा सकते हैं।
हालांकि, यदि भारत उम्मीद करे कि ट्रम्प भारत के पक्ष में खुलकर खड़े होंगे, तो यह सोच भी खतरनाक हो सकती है। ट्रम्प के लिए गठबंधन की शर्त भारत की सामरिक स्थिति नहीं, बल्कि अमेरिकी स्वार्थ होगा। वह भारत को चीन के खिलाफ संतुलन के रूप में देखते हैं, लेकिन यदि पाकिस्तान की भूमिका अफगानिस्तान या इस्लामी चरमपंथ के खिलाफ ज़रूरी लगे, तो ट्रम्प पलटी भी मार सकते हैं। यही ट्रम्प कार्ड की विशेषता है—यह कब किसके पक्ष में चलेगा, कोई नहीं जानता।
चीन की भूमिका इस पूरे समीकरण को और पेचीदा बना देती है। पाकिस्तान का परंपरागत सहयोगी चीन, भारत से लद्दाख और अरुणाचल में सीमा विवादों में उलझा हुआ है। ट्रम्प के कार्यकाल में अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध अपने चरम पर था। इस लिहाज से ट्रम्प चीन को दबाने के लिए भारत को प्रोत्साहित कर सकते हैं और पाकिस्तान पर दबाव भी बना सकते हैं। लेकिन यदि चीन और अमेरिका के बीच कोई गुप्त समझौता होता है, तो ट्रम्प का रुख पाकिस्तान के पक्ष में झुक सकता है।
इस पूरे परिदृश्य में यह स्पष्ट होता है कि डोनाल्ड ट्रम्प भारत-पाक युद्ध के बीच कोई स्थायी या विश्वसनीय पक्षधर नहीं होंगे। वे स्थिति को अपनी छवि, अमेरिकी चुनाव, व्यापारिक लाभ और अंतरराष्ट्रीय वर्चस्व के लिहाज से परखेंगे। उनका ट्रम्प कार्ड कब भारत के हित में चल जाए और कब पाकिस्तान के समर्थन में उल्टा पड़ जाए, यह न तो भारत जानता है, न पाकिस्तान, और न ही शायद ट्रम्प स्वयं।
इसलिए, भारत जैसे देश को चाहिए कि वह किसी तीसरे देश की नीति पर अपनी रणनीति न टिका कर, आत्मनिर्भर और दीर्घकालिक दृष्टिकोण बनाए। युद्ध की स्थिति में विदेशी समर्थन की अपेक्षा से ज्यादा ज़रूरी है अपनी सैन्य, कूटनीतिक और सूचना तंत्र की मज़बूती। ट्रम्प जैसे नेताओं की भूमिका को समझते हुए भारत को अपने तंत्र को इतना प्रभावी बनाना होगा कि वह स्वयं संकट को नियंत्रण में रख सके।
ट्रम्प का ट्रम्प कार्ड दुनिया को यह बताता है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति अब केवल नीति और सिद्धांतों की नहीं रही, यह एक मीडिया प्रबंधन और व्यक्तित्व आधारित रणनीति बन चुकी है। भारत और पाकिस्तान दोनों को इससे सावधान रहने की ज़रूरत है।
कभी-कभी शांति किसी महाशक्ति की मध्यस्थता से नहीं, बल्कि आत्मचिंतन और सामूहिक विवेक से आती है। भारत के पास यह विकल्प है कि वे ट्रम्प कार्ड की ज़रूरत ही न पड़ने दें। लेकिन जब तक यह विवेक नहीं उभरता, तब तक ट्रम्प जैसा कोई नेता इस जटिल भू-राजनीतिक खेल में अपनी चालें चलता रहेगा, और हम सब यही पूछते रहेंगे—इस बार ट्रम्प कार्ड किसके पाले में जाएगा?
मुकेश वर्मा