“आज़ादी के अमृत काल में लोकतंत्र की सफाई: 15 अगस्त से पहले यूपी के 121 और देशभर के 476 राजनीतिक दलों पर कार्रवाई”

भारत का लोकतंत्र हमेशा से अपनी विविधता और विशाल चुनावी प्रक्रिया के लिए जाना जाता है। यहां हजारों राजनीतिक दल हैं—कुछ बड़े और राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावशाली, तो कुछ केवल किसी एक जिले या कस्बे तक सीमित। लेकिन इसी विशाल लोकतांत्रिक ढांचे के भीतर एक ऐसा पहलू भी मौजूद है, जिस पर अक्सर चर्चा नहीं होती—वे दल जो नाम के लिए पंजीकृत हैं, लेकिन लंबे समय से चुनावी मैदान में सक्रिय नहीं हैं। अब भारत निर्वाचन आयोग ने ऐसे दलों पर नकेल कसने का फैसला किया है और इसकी शुरुआत इतिहास की सबसे बड़ी सफाई कार्रवाई से हो रही है। इस कार्रवाई के तहत 476 पंजीकृत गैर-मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों (RUPP) की पहचान की गई है, जो पिछले छह वर्षों से एक भी चुनाव नहीं लड़े। इनमें सबसे बड़ी संख्या उत्तर प्रदेश की है, जहां 121 दल इस कार्रवाई की जद में आए हैं।

जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 29ए के तहत कोई भी संगठन भारत निर्वाचन आयोग में राजनीतिक दल के रूप में पंजीकृत हो सकता है। पंजीकरण के बाद ऐसे दलों को चुनाव चिह्न, कर छूट, बैंक खातों में विशेष प्रावधान और कुछ अन्य कानूनी व प्रशासनिक सुविधाएं मिलती हैं। इस प्रावधान का उद्देश्य लोकतंत्र में नई आवाजों और विचारधाराओं को मौका देना है, ताकि छोटे और नए संगठन भी राजनीति में आ सकें। लेकिन समय के साथ यह देखा गया कि बड़ी संख्या में दल पंजीकरण के बाद चुनावी मैदान से गायब हो जाते हैं और केवल पंजीकरण से मिलने वाले लाभ का उपयोग करते रहते हैं। कई बार ऐसे दलों पर कर संबंधी नियमों में छूट का दुरुपयोग करने के आरोप भी लगते हैं।

इसी पृष्ठभूमि में निर्वाचन आयोग ने 2019 से एक राष्ट्रव्यापी ‘सफाई अभियान’ शुरू किया। इसका मकसद यह था कि जो दल लगातार छह वर्षों तक एक भी चुनाव नहीं लड़ते, उन्हें सूची से हटा दिया जाए। पहले चरण में 9 अगस्त 2025 को 334 पंजीकृत गैर-मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को सूची से बाहर कर दिया गया। इस कार्रवाई के बाद ऐसे दलों की कुल संख्या 2,854 से घटकर 2,520 रह गई। अब दूसरे चरण में 476 और दलों की पहचान की गई है। उत्तर प्रदेश में 121, महाराष्ट्र में 44, तमिलनाडु में 42, दिल्ली में 41, आंध्र प्रदेश में 17, राजस्थान में 18, पंजाब में 21, मध्य प्रदेश में 23, बिहार में 15, गुजरात में 10, उत्तराखंड में 11, पश्चिम बंगाल में 12, केरल में 11, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में 7-7, जम्मू-कश्मीर में 12, और शेष राज्यों में संख्या 1 से 9 के बीच है। यह सूची निर्वाचन आयोग ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य निर्वाचन अधिकारियों को भेज दी है।

कार्रवाई की प्रक्रिया बेहद सावधानी से बनाई गई है। निर्वाचन आयोग ने यह सुनिश्चित करने के लिए कि किसी दल को गलत तरीके से बाहर न किया जाए, सभी चिन्हित दलों को कारण बताओ नोटिस जारी करने का निर्देश दिया है। राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य निर्वाचन अधिकारी इन नोटिसों के जरिए दलों से पूछेंगे कि वे पिछले छह वर्षों में चुनाव में क्यों नहीं उतरे और पंजीकृत बने रहने का क्या औचित्य है। इसके बाद मुख्य निर्वाचन अधिकारी सुनवाई आयोजित करेंगे, जिसमें दलों को अपना पक्ष रखने का पूरा अवसर मिलेगा। सुनवाई के बाद तैयार रिपोर्ट भारत निर्वाचन आयोग को भेजी जाएगी, जो अंतिम निर्णय लेगा कि किन दलों को सूची से हटाना है और किन्हें रहने देना है।

उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा 121 दल इस कार्रवाई की चपेट में आने से पूरे राजनीतिक हलके में हलचल है। यह वही राज्य है जिसे देश की राजनीति का केंद्र माना जाता है, क्योंकि यहां की विधानसभा देश की सबसे बड़ी है और लोकसभा की 80 सीटें यहां से आती हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इतनी बड़ी संख्या में निष्क्रिय दल होना इस बात का संकेत है कि पंजीकरण के बाद कई संगठन सक्रिय राजनीति में टिक नहीं पाते। यूपी की राजनीति में बड़े दलों का दबदबा, महागठबंधन और जातीय समीकरणों की जटिलता छोटे दलों को हाशिये पर धकेल देती है। कुछ दल केवल इस आशा में पंजीकृत रहते हैं कि भविष्य में किसी चुनावी गठबंधन में उन्हें सीट या राजनीतिक सौदेबाजी का मौका मिल सकता है, लेकिन मैदान में उतरने का जोखिम नहीं लेते।

इस कार्रवाई के पीछे एक बड़ा उद्देश्य चुनावी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाना भी है। जब मतदाताओं के सामने चुनाव में असंख्य दलों के नाम आते हैं, तो भ्रम की स्थिति बन सकती है। इसके अलावा, सूची में केवल सक्रिय और गंभीर दल होने से निर्वाचन आयोग का प्रशासनिक बोझ भी कम होगा और संसाधनों का बेहतर उपयोग संभव होगा। आयोग के वरिष्ठ अधिकारियों का मानना है कि इससे न केवल चुनावी पारदर्शिता बढ़ेगी, बल्कि नकली या केवल कागजों में मौजूद दलों के जरिए होने वाले संभावित वित्तीय दुरुपयोग पर भी अंकुश लगेगा।

लेकिन इस कार्रवाई को लेकर आलोचना भी हो रही है। कुछ छोटे दलों का तर्क है कि वे भले ही बड़े चुनाव न लड़ें, लेकिन स्थानीय स्तर पर सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर सक्रिय रहते हैं, और इस कारण उन्हें सूची से हटाना लोकतंत्र में विविधता को नुकसान पहुंचा सकता है। उनका कहना है कि चुनावी सक्रियता का मापदंड केवल चुनाव लड़ना नहीं होना चाहिए, बल्कि संगठन के सामाजिक कार्य और स्थानीय मुद्दों पर हस्तक्षेप को भी देखा जाना चाहिए। हालांकि निर्वाचन आयोग का कहना है कि पंजीकृत दल बने रहने का मुख्य उद्देश्य चुनावी राजनीति में भागीदारी है और यदि कोई दल ऐसा नहीं करता, तो वह कानून की परिभाषा के तहत पंजीकृत राजनीतिक दल की श्रेणी में नहीं रह सकता।

राजनीतिक जानकारों का यह भी कहना है कि यह कार्रवाई आने वाले वर्षों में भारत के राजनीतिक नक्शे को बदल सकती है। पंजीकृत दलों की संख्या घटने से चुनावी बैलेट पर नामों की लंबी सूची छोटी हो जाएगी और मतदाता अधिक स्पष्ट विकल्पों के साथ मतदान कर सकेंगे। इसके साथ ही, यह उन नए दलों के लिए भी जगह बनाएगी जो वास्तव में चुनावी मैदान में उतरना चाहते हैं। इस प्रक्रिया से यह संदेश भी जाएगा कि केवल नाम के लिए दल बनाना और पंजीकरण से मिलने वाले लाभ लेना अब संभव नहीं होगा।

उत्तर प्रदेश के संदर्भ में देखें, तो यह कार्रवाई प्रदेश की राजनीति में कई बदलाव ला सकती है। छोटे-छोटे निष्क्रिय दलों के हटने से बड़े क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दलों का वर्चस्व और बढ़ सकता है, लेकिन दूसरी ओर यह भी संभव है कि इससे कुछ नए सक्रिय दलों को उभरने का अवसर मिले। चुनावी समीकरणों में यह परिवर्तन 2027 के विधानसभा चुनावों और 2029 के लोकसभा चुनावों में भी दिखाई दे सकता है।

देश के अन्य राज्यों में भी इस कार्रवाई के असर के संकेत मिलने लगे हैं। महाराष्ट्र में 44 दलों की पहचान ने वहां की बहुदलीय राजनीति को झटका दिया है। तमिलनाडु और दिल्ली जैसे राज्यों में, जहां चुनावी प्रतिस्पर्धा बहुत तीव्र है, निष्क्रिय दलों का हटना राजनीतिक धारा को और स्पष्ट कर सकता है। यह कार्रवाई उन राज्यों में भी अहम होगी जहां छोटे दल गठबंधन राजनीति में ‘किंगमेकर’ की भूमिका निभाते हैं, क्योंकि अब उन्हें सक्रिय बने रहने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।

आगे का रास्ता पूरी तरह कानूनी और पारदर्शी होगा, लेकिन इसके परिणाम गहरे और व्यापक होंगे। यह कार्रवाई न केवल निर्वाचन आयोग की साख को मजबूत करेगी, बल्कि भारत के लोकतांत्रिक तंत्र में जवाबदेही और सक्रिय भागीदारी का नया मानक भी तय करेगी।