चौरासी लाख वनस्पतियाँ है, मानव तुमको खाने को
फल, सब्जी, अनाज, कंदमूल है, उदर की क्षुधा मिटाने को
मूक जीवों की नृशंस हत्या कर, क्यों उनको भोजन बनाते हो
अथाह वेदना देकर उनको, कैसे तृप्ति पाते हो
चोट लगे जो जरा सी हमको, पीड़ा होती हमको अपरम्पार
पशुओं को काटकर खाना, प्रकृति पर भी है अत्याचार
भोजन, मन की वृत्तियों पर, अपनी छाप छोड़ता है
क्रोध, आवेश, हैवानियत, हिंसा से मन के तार जोड़ता है
हिंसा के उपासक, चैन कभी नहीं पाते हैं
अपनी करनी के कारण, अन्त समय पछताते है
आज विषमता के कुचक्र ने, सारे जग को घेरा है
संकट मे है मानवता, चारों ओर अंधेरा है
जीव दया और करुणा ही है, मानवता का सार
अहिंसा का पथ ही है, मरती मानवता का उपचार
तन ,मन और वचन को, दो सात्विकता का उपहार
खाओ और खिलाओ सबको, शाकाहार—शाकाहार!
सरिता “साहिल “