सूरज संग संवाद’ : छठ पर्व सिर्फ व्रत नहीं, प्रकृति और नारी शक्ति का उत्सव है

रिपोर्ट : पंकज चतुर्वेदी

दीपावली के उजालों के ढलते ही जब नदियों, पोखरों और घाटों के किनारे दीपक झिलमिलाने लगते हैं, तब शुरू होता है सूर्य संग संवाद — यानी छठ महापर्व। यह पर्व सिर्फ व्रत नहीं, बल्कि सूर्य, जल और धरती के साथ नारी की ऊर्जा का दिव्य संगम है। यह भारतीय लोकजीवन का वह अध्याय है जिसमें तपस्या, आस्था और पर्यावरण का अद्भुत समन्वय दिखाई देता है।

कार्तिक मास की षष्ठी तिथि को मनाया जाने वाला यह पर्व सूर्योपासना का सबसे प्राचीन और वैज्ञानिक उत्सव माना जाता है। इस दिन सूर्य की पराबैंगनी किरणें पृथ्वी पर विशेष प्रभाव डालती हैं। व्रती इन किरणों से रक्षा और ऊर्जा प्राप्ति के लिए जल में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं। यह अर्घ्य सिर्फ सूर्य को नहीं, बल्कि जीवन के स्रोतों को समर्पित एक वंदना होती है।

छठ पर्व में सूर्य देव के साथ उनकी बहन षष्ठी देवी — जिन्हें जनमानस छठी मैया कहता है — की पूजा की जाती है। मान्यता है कि वे संतान की रक्षा करती हैं, घर-परिवार में सुख-संपन्नता और दीर्घायु का आशीर्वाद देती हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा प्रियव्रत ने पुत्र प्राप्ति की कामना से षष्ठी देवी की आराधना की थी, तभी से इस व्रत की परंपरा प्रारंभ हुई।

चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व की शुरुआत नहाय-खाय से होती है, जिसमें व्रती स्नान कर शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण करते हैं। दूसरे दिन खरना पर निर्जल उपवास रखा जाता है और शाम को गन्ने के रस से बनी खीर का प्रसाद वितरित किया जाता है। तीसरे दिन अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, जबकि चौथे दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देकर व्रत का समापन होता है।

यह व्रत कठिन अनुशासन, पवित्रता और त्याग का प्रतीक है। व्रती दिन-रात भूखे-प्यासे रहकर जल में खड़े होकर सूर्य की पूजा करते हैं। यह व्रत प्रायः महिलाएं करती हैं, लेकिन कई पुरुष भी इसे पूरे श्रद्धा और नियम से निभाते हैं। व्रती सिले हुए वस्त्र नहीं पहनते — महिलाएं साड़ी और पुरुष धोती धारण करते हैं। माना जाता है कि एक बार व्रत शुरू करने के बाद इसे जीवनभर करना होता है, जब तक अगली पीढ़ी की कोई विवाहित महिला इसे आगे न बढ़ा दे।

छठ व्रत का सबसे वैज्ञानिक पहलू है इसका पर्यावरणीय दृष्टिकोण। सूर्योदय और सूर्यास्त के समय जल में खड़े रहना, शरीर को सूर्य की कोमल किरणों से ऊर्जा प्राप्त करने की प्रक्रिया है। यह न केवल आत्म-शुद्धि का प्रतीक है बल्कि शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाला एक प्राकृतिक अभ्यास भी है।

घाटों पर गूंजते लोकगीत इस पर्व की आत्मा हैं —

“केलवा जे फरेला घवद से, ओह पर सुगा मेड़राय…”
“उगु न सुरुज देव भइलो अरग के बेर…”

इन गीतों में लोक की आस्था, नारी की पीड़ा और प्रकृति के प्रति समर्पण की भावनाएँ झलकती हैं। छठ पूजा में प्रसाद के रूप में ठेकुआ, मालपुआ, खीर-पुड़ी, चावल के लड्डू और मौसमी फल चढ़ाए जाते हैं। बांस की टोकरी, सूप और दीपक इस व्रत के अनिवार्य अंग हैं।

छठ पर्व के पीछे अनेक पौराणिक मान्यताएँ भी जुड़ी हैं। रामायण में वर्णन है कि लंका विजय के बाद भगवान राम और सीता ने कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सूर्य उपासना कर सूर्यदेव से आशीर्वाद लिया था। वहीं महाभारत में सूर्यपुत्र कर्ण द्वारा प्रतिदिन जल में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा का उल्लेख मिलता है। इसीलिए इसे सूर्य पूजा का सबसे प्रामाणिक रूप माना गया है।

छठ पर्व सिर्फ धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता का प्रतीक भी है। इस दिन जाति, वर्ग या आर्थिक भेदभाव मिट जाते हैं और हर कोई घाट पर एक समान होकर सूर्य की पूजा करता है। महिलाएं, जो इस पर्व की आत्मा हैं, अपने परिवार की खुशहाली के लिए तप करती हैं — यह नारी शक्ति की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है।

छठ महापर्व यह संदेश देता है कि मनुष्य का जीवन तब तक संतुलित नहीं हो सकता जब तक वह प्रकृति के साथ संवाद में न रहे। सूर्य, जल, धरती और नारी — यही चार तत्व इस पर्व की आत्मा हैं।