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कानपुर के आतंक का अंत- Amar Bharti Media Group सम्पादकीय

कानपुर के आतंक का अंत

#आठ दिन, छह एनकाउंटर और विकास दुबे की गैंग खल्लास…खून की स्याही से लिखी गई जुर्म की इबारत पर कानून ने समाप्त की मुहर लगा ही दी। और इसी के साथ कानपुर के बिकरू गांव में सीओ सहित आठ पुलिस वालों की हत्या करने वाले पांच लाख रुपये के इनामी गैंगस्टर विकास दुबे की कहानी आखिरकार खत्म हुई। नौ जुलाई को उज्जैन में महाकाल शिवमंदिर परिसर से पुलिस की गिरफ्त में आया विकास अब किसी का खून नहीं बहा सकेगा। उसने वही काटा जो बोया था। साथ ही उसकी गैंग के सभी नामी गुंडे-बदमाश भी अब पुलिस की फाइलों में बंद हो गए हैं। मध्यप्रदेश के उज्जैन से कानपुर लेकर आते समय उत्तर प्रदेश पुलिस की एसटीएफ टीम का एक वाहन पलट गया था। उसी समय बची आपाधापी का फायदा उठाकर विकास दुबे ने भागने की कोशिश की और पुलिस की गोलियों का शिकार हो गया।

इस तरह आतंक का पर्याय बन चुके दुबे का अंत हो गया। हालांकि गैंगस्टर विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद अब तरह-तरह के सवाल उठ रहे हैं। पुलिस विकास दुबे के भागने की बात कर रही है लेकिन सवाल ये उठ रहे हैं कि अगर विकास दुबे को भागना ही होता तो वह उज्जैन में ही भाग जाता। उज्जैन मंदिर में पकड़े जाने से पहले करीब दो घंटे तक वहीं रहा लेकिन भागा नहीं बल्कि लोगों को खुद चिल्लाकर अपना नाम बताया। उसने मीडियाकर्मियों के सामने भी चिल्ला-चिल्लाकर बताया कि वो विकास दुबे है कानपुर वाला।

वह तब क्यों नहीं भागा। सबसे बड़ा सवाल तो ये उठाया जा रहा है कि जब उसके दोनों पैर में रॉड डली थी और वह लंगड़ाकर चलता था, तो इतनी भारी संख्या में हथियारों से लैस पुलिस बल के होते हुए वह क्यों भागा। जबकि वह कहीं न कहीं जानता होगा कि वह ज्यादा दूर नहीं भाग पाएगा। सवाल तो ये भी उठ रहे हैं कि पुलिस ने उसका हाथ क्यों नहीं बांधे थे। मोस्टवांटेड अपराधी होने के बावजूद पुलिस ने उसे हथकड़ी क्यों नहीं लगाई थी।

वैसे भी हर अपराधी को उसके अपराध का उचित दण्ड अवश्य मिलना चाहिए..लेकिन ये दंड देश में संविधान द्वारा स्थापित कानून व्यवस्था के तहत ही मिलना चाहिए। यदि वर्तमान कानून व्यवस्था में कोई त्रुटियां हैं तो उनमें सुधार करना चाहिए, कानून को हाथ में लेने का अधिकार किसी को भी नहीं है। आज विकास दुबे के विवादास्पद एनकाउंटर पर ये हज़ारों प्रश्न उठ खड़े हुए है, किसकी नाकामी है ये? अगर ऐसा ही चलता रहा और ऐसे एनकाउंटर्स को ठीक समझा जाने लगा तो, कहीं ऐसा ना हो कि लोग अपना-अपना न्याय अपने ही हाथों से सड़कों पर ना करने लग जाएं। गैंगस्टर विकास दुबे की गिरफ्तारी और उसके कुछ साथियों के एनकाउंटर पुलिस की कामयाबी नहीं है। बल्कि पुलिस और राजनीति का बहुत बड़ा गठजोड़ है, जिसको समझने लायक छोड़ा नहीं गया मगर ये पब्लिक है जनाब सब समझ लेती है।

अपराधी पकड़े जाते हैं और छूट भी जाते हैं। मगर ये घटनाक्रम बताता है कि राजनीति में ऐसे लोग भरे पड़े हैं जो अपराधियों की मदद कर उनसे अपने आर्थिक और सियासी हित साधते हैं। विकास दुबे के एनकाउंटर के साथ ही सारे राज दफन हो गए । जरूरी है कि वह सफेदपोश प्रदेश व देश के सामने आए जो ऐसे दुर्दांत अपराधियों को अपने गोद में बिठाकर दूध पिलाते हैं और पुलिस तथा अन्य नागरिकों की मौत का सामान तैयार करते हैं।