ज़हरीली चादर से आखिर किसने ढक दिया शहर? दीपावली के बाद लखनऊ की हवा में घुला जहर

Ai image

लखनऊ।दीपों का त्यौहार बीत चुका है, मगर लखनऊ की हवा में अब भी पटाखों का धुआं और ज़हरीला धूलकण तैर रहा है। दिवाली की रात का उजाला सुबह तक धुंध में बदल गया और राजधानी लखनऊ ने एक बार फिर सांसों पर बोझ बढ़ा देने वाला ‘प्रदूषण सूचकांक’ देखा। शहर की सुबह धुंधली, आंखें चुभती, गले में खराश और सड़कों पर पसरी धुंध — ये सब किसी चेतावनी से कम नहीं। पर्यावरण विभाग के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक दीपावली के अगले ही दिन लखनऊ का वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) खतरनाक स्तर 380 से 450 के बीच पहुंच गया, जो ‘बहुत खराब’ श्रेणी में आता है।

राजधानी की आबोहवा में घुल चुके इन ज़हरीले कणों ने साफ़ कर दिया कि उत्सव की चमक के साथ हमने अपनी सांसों की कीमत भी चुका दी। गोमती नगर, अलीगंज, अमीनाबाद, चारबाग, आलमबाग और हजरतगंज जैसे इलाकों में हवा की स्थिति सबसे खराब दर्ज की गई। कई जगहों पर तो धुंध इतनी गहरी थी कि सुबह के वक़्त 20 से 30 मीटर तक दृश्यता कम हो गई। सुबह-सुबह दफ्तर जाने वाले लोगों ने मास्क पहनना शुरू कर दिया, मगर प्रदूषण का असर आंखों, गले और फेफड़ों तक उतर चुका है।

प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के विशेषज्ञों का कहना है कि दीपावली की रात हुई पटाखों की तेज़ आतिशबाज़ी ने वातावरण में सल्फर डायऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और कार्बन कणों की मात्रा कई गुना बढ़ा दी। वहीं शहर के अलग-अलग हिस्सों में जली परालियां और वाहन उत्सर्जन ने इस धुंध को और गाढ़ा कर दिया। यानि हवा में सिर्फ़ जश्न का धुआं नहीं, बल्कि लापरवाही और अनदेखी का भी धुआं है।

डॉक्टरों का कहना है कि यह प्रदूषण बच्चों, बुज़ुर्गों और अस्थमा से पीड़ित लोगों के लिए बेहद खतरनाक है। शहर के प्रमुख अस्पतालों में प्रदूषण जनित बीमारियों के मरीजों की संख्या में अचानक बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। बाल रोग विशेषज्ञों ने बताया कि दीपावली के बाद से बच्चों में खांसी, गले में दर्द, और सांस लेने में तकलीफ़ के मामले बढ़ गए हैं। किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी (KGMU) के डॉक्टरों के मुताबिक, ऐसे मौसम में बाहर निकलना खुद को जहर के हवाले करने जैसा है।

राजधानी प्रशासन ने प्रदूषण नियंत्रण के लिए कुछ कदम उठाए हैं, जैसे निर्माण कार्यों पर रोक, सड़कों की धूल पर पानी का छिड़काव और ट्रैफिक को नियंत्रित करने के प्रयास। लेकिन ये उपाय नाकाफी साबित हो रहे हैं। हर साल दीपावली के बाद यही कहानी दोहराई जाती है — हवा जहरीली हो जाती है, लोग बीमार पड़ते हैं, प्रशासन आंकड़े जारी करता है और कुछ दिन बाद सब सामान्य मान लिया जाता है। सवाल यह है कि आखिर कब तक लखनऊ जैसे शहर त्योहारों की कीमत सांसों से चुकाते रहेंगे?

लखनऊ की हवा में इस वक्त पार्टिकुलेट मैटर (PM 2.5) की मात्रा 250 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से ऊपर पहुंच चुकी है, जबकि सुरक्षित सीमा 60 माइक्रोग्राम मानी जाती है। इसका मतलब यह है कि राजधानी की हवा चार गुना ज़्यादा दूषित है। पर्यावरण वैज्ञानिकों का कहना है कि ये सूक्ष्म कण हमारे फेफड़ों में जाकर स्थायी नुकसान पहुंचा सकते हैं। लंबे समय तक ऐसे वातावरण में रहने से दिल की बीमारियां, ब्रोंकाइटिस और फेफड़ों का कैंसर तक हो सकता है।

इस स्थिति के लिए केवल पटाखे ही जिम्मेदार नहीं हैं। दीपावली से पहले शहर के कई इलाकों में कूड़ा जलाने और पराली के धुएं ने हवा को पहले ही भारी बना दिया था। ऊपर से वाहनों का लगातार बढ़ता दबाव और पुराने डीजल जनरेटरों का प्रयोग आग में घी डालने जैसा साबित हुआ। इस साल दीपावली पर भले ही कई जगहों पर ‘ग्रीन पटाखों’ की अपील की गई थी, लेकिन हकीकत यह है कि लोगों ने इस पर खास ध्यान नहीं दिया। रातभर आतिशबाज़ी चलती रही और सुबह जब सूरज उगा तो उसकी रोशनी भी धुंध में खो गई।

शहर की सुंदरता, जिसके लिए लखनऊ जाना जाता है — अब धुंध के परदे में छिपी हुई है। गोमती नदी के किनारे से दिखने वाली लालिमा अब फीकी है, हजरतगंज की चमक अब धुंध में गुम है। बच्चे जिन्होंने दीपावली पर आसमान में चमकते पटाखे देखे थे, वे अब उसी आसमान को धुंधला देख रहे हैं। यह वही शहर है जिसने स्वच्छता और हरियाली की मिसाल पेश की थी, लेकिन अब इसकी सांसें तकलीफ में हैं।

प्रदूषण विशेषज्ञों का मानना है कि अगर अब भी शहरवासियों ने अपनी आदतें नहीं बदलीं तो आने वाले वर्षों में स्थिति और भी भयावह हो जाएगी। प्रदूषण को रोकने के लिए केवल प्रशासनिक प्रयास काफी नहीं हैं, जनता की भागीदारी सबसे अहम है। दीपावली की असली रौशनी तो तब है जब हमारे बच्चों की सांसें सुरक्षित रहें, जब हम स्वच्छ हवा में दीये जलाएं, न कि जहरीले धुएं में।

लखनऊ में फिलहाल हवा में ‘त्योहार का असर’ कम नहीं हुआ है। नगर निगम और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की टीमें लगातार मॉनिटरिंग में जुटी हैं। लेकिन प्रदूषण का जाल इतना गहरा है कि उससे निकलना आसान नहीं। सड़क किनारे लगे पेड़ धूल से सफेद हो चुके हैं, और शहर के कई हिस्सों में लोग अपने घरों की बालकनी तक धुंध से ढकी देख रहे हैं।

दीपावली के बाद की यह सुबह सिर्फ प्रदूषण की कहानी नहीं कहती, बल्कि यह हमारे भविष्य की चेतावनी भी है। अगर हमने अभी नहीं सोचा, तो आने वाले सालों में ‘ज़हरीली चादर’ सिर्फ एक दिन की नहीं, बल्कि पूरे मौसम की हकीकत बन जाएगी। लखनऊ जैसे शहर, जो अपनी तहज़ीब और खुशबू के लिए जाने जाते हैं, अगर इस जहर में घुलने लगे तो यह सिर्फ हवा का नहीं, बल्कि संवेदना का भी प्रदूषण है।

प्रश्न वही है — ज़हरीली चादर से आखिर किसने ढक दिया शहर? जवाब है — हमने खुद, अपनी लापरवाही, अपनी आदतों और अपनी सोच से। अब जरूरत है कि दीपावली की असली रौशनी को बचाने के लिए हम हवा की इस अंधेरी परत को हटाएं।