मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए प्राथमिक शिक्षा

– शिक्षा के लक्ष्यों को तभी प्राप्त किया जा सकेगा जब बच्चों से उनकी भाषा में बात की जाए।

प्राथमिक शिक्षा का व्यक्ति के जीवन में वही स्थान है जो मां का है। यह व्यक्ति के जीवन की वह अवस्था है जबकि संपूर्ण जीवन विकास क्रम को गति मिलती है। इस उम्र की शिक्षा जीवन की महत्वपूर्ण शिक्षा होती है। संभावनाओं से भरी इस अवस्था को सही दिशा उस समय मिल पाएगी जब उसकी दिशा सही हो। सही दिशा से तात्पर्य बच्चों का शारीरिक, मांसपेशीय, संज्ञानात्मक, बौद्धिक, सृजनात्मक, अभिव्यक्ति और सौंदर्यबोध का विकास से है। शिक्षा के इन लक्ष्यों को तभी प्राप्त किया जा सकेगा जब बच्चों से उनकी भाषा में बात की जाए। चूंकि शिक्षा बालक केंद्रित होती है और शिक्षक की भूमिका पथ प्रदर्शक की होती है। ऐसे में जरूरी होता है कि बच्चों से उनकी अपनी ही भाषा में बात किया जाए। इससे बच्चों के स्वाभाविक विकास में सहायता मिलती है।

ऐसे में जब चारों ओर अंग्रेजी का बोलबाला है। विशेषकर यदि शिक्षा की बात की जाए तो हमारे देश में ऐसा माहौल है कि यह मानकर चला जा रहा है कि बिना अंग्रेजी ज्ञान के उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं की जा सकती है। तब सरकार को यह निर्णय लेना चाहिए कि प्राथमिक स्तर पर बच्चों को उनकी ही बोली में शिक्षा दी जानी चाहिए। इसका प्रमुख कारण यह है कि इससे न केवल ग्रामीण बच्चों की पढ़ाई में रुचि बढ़ेगी बल्कि उनके ‘ड्राप आउट’ को भी रोका जा सकेगा। इसीलिए अब स्थानीय, बोलियों जैसे कौरवी (खड़ी बोली), ब्रज भाषा, कन्नौजी, बुंदेली, अवधी, भोजपुरी, बघेली में पाठयपुस्तक तैयार कर पढ़ाने की जरूरत महसूस की जा रही हैं। एक और बात पर सरकार का ध्यान दिया जाना चाहिए कि इससे प्राथमिक शिक्षा की नींव मजबूत की जा सकती है। जिससे बोर्ड परीक्षाओं तथा भविष्य में प्रतियोगिता परीक्षाओं में बेहतर परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। सरकार का यह कदम शिक्षा मनोवैज्ञानिकों के उन परिणामों की पुष्टि ही करता है, जो हमेशा से इस बात की वकालत करते आ रहे हैं कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए।

इस उम्र की शिक्षा जीवन की महत्वपूर्ण शिक्षा होती है। संभावनाओं से भरी इस अवस्था को सही दिशा उस समय मिल पाएगी जब उसकी दिशा सही हो। सही दिशा से तात्पर्य है बच्चों का शारीरिक, मांसपेशीय, संज्ञानात्मक, बौद्धिक, सृजनात्मक, अभिव्यक्ति और सौंदर्यबोध का विकास। शिक्षा के इन लक्ष्यों को तभी प्राप्त किया जा सकेगा जब बच्चों से उनकी भाषा में बात की जाए। चूंकि शिक्षा बालक केंद्रित होती है और शिक्षक की भूमिका पथ प्रदर्शक की होती है। ऐसे में जरूरी होता है कि बच्चों से उनकी अपनी ही भाषा में बात की जाए क्योंकि इससे बच्चों के स्वाभाविक विकास में सहायता मिलती है। गांधी जी ने 25 अगस्त 1946 की हरिजन पत्रिका में लिखा है, मातृभाषा माता के स्तन के समान होती है। वहीं एक अन्य स्थान पर वे लिखते हैं, ‘यदि मैं एक निरंकुश शासक की शक्तियां संयुक्त होतीं तो आज ही विदेशी माध्यम के द्वारा पढ़ाई बंद करा देता।’

शिक्षा का अंतिम लक्ष्य बालक के व्यवहार में परिवर्तन लाना है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए विभिन्न गतिविधियों का सहारा लिया जाता है। जिनकी सफलता इस बात पर निर्भर होती है कि क्या बालक शिक्षक की बात समझ रहा है? बालक जितना ही शिक्षक की बात समझेगा उतना ही उसका स्वाभाविक विकास होगा, उतना ही वह मानसिक रूप से स्वतंत्र होगा, दबावों से मुक्त होगा। एक घटना मेरे विद्यालय में पढ़ने वाली एक छात्रा शैल कुमारी की है, दूसरी कक्षा में पढ़ने वाली शैल कुमारी को उसके घर वालों ने अंग्रेजी माध्यम की चकाचौंध के चलते पास में घुघली कस्बे के अंग्रेजी माध्यम के एक स्कूल में भर्ती करा दिया गया। लेकिन रोजाना स्कूल जाने के समय पर उसके घर में हल्ला-गुल्ला होता, उसे मारा-पीटा जाता, क्योंकि वह स्कूल नहीं जाना चाहती। कारण वहां शिक्षक जो कहते वह समझ ही नहीं पाती, गृहकार्य नहीं कर पाती, इधर घर वालों का गुस्सा भी जायज था। आखिर घर के खर्चों में कटौती कर उसकी फीस भरी जा रही थी। अंतत: घर वालों को समझ आया। उसे पुन: हमारे प्राथमिक स्कूल में भर्ती करा दिया गया और आज वही शैल कुमारी चौथी कक्षा की छात्रा है। खुशी-खुशी स्कूल आती है।

कहना न होगा कि हमारे आसपास ढेरों शैल कुमारी हैं जो मानसिक तनाव की शिकार सिर्फ इसलिए हैं कि उनके घर की भाषा और स्कूल की भाषा में साम्यता का अभाव है। बच्चों  के स्कूल की भाषा को अभिभावक समझ नहीं पाते। फलत: चाहकर भी वे बच्चों की पढ़ाई में मदद नहीं कर पाते। इससे बच्चे और उनके बीच दूरी बनने लगती है। वैसे भी जब शिक्षा का उद्देश्य अधिक से अधिक बच्चों को जोड़े रखता है। तब जरूरी है कि बच्चों से उनकी अपनी ही भाषा में बात की जाए। शिक्षा तभी पूर्ण होगी जब शिक्षक और विद्यार्थी के बीच संबंध स्थापित हो, उनके बीच अंर्तक्रिया हो, वे एक दूसरे को समझ सकें, समझा सकें। शिक्षाशास्त्री स्किनर का कहना है कि संस्कृति को समझने के लिए शिक्षकों को छात्रों को समझने की आवश्यकता है। विद्यार्थी को समझे बिना शिक्षा पूर्ण कराने का कोई औचित्य नहीं। विद्यार्थी को समझना इसलिए जरूरी है कि वह निर्जीव यंत्र नहीं होता, बल्कि प्यार, ईर्ष्या, द्वेष, सुख-दुख की भावना से भरा जीवित प्राणी होता है। अपनी मनोदशा के अनुरूप न केवल वह व्यवहार ही करता है अपितु किसी ज्ञान को सीखने के लिए प्रेरित भी होता है। यह तभी हो पाएगा जब शिक्षक छात्र की अपनी भाषा में बात करें। किसी भी कारण से अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो मानकर चलना होगा कि यह स्थिति शिक्षक और छात्र दोनों ही के लिए न केवल नुकसानदायक है बल्कि तनावपूर्ण भी। प्राथमिक स्तर के बच्चों की शिक्षा पर हमारे देश में अनेक तरह के अनुसंधान हो रहे हैं जो इस बात की ओर इशारा करते हैं कि इस स्तर की शिक्षा की दशा और दिशा दोनों ही दयनीय स्थिति में है। ये अनुसंधान बताते हैं कि प्राथमिक स्तर के बच्चे मानसिक तनावों के शिकार हैं क्योंकि उनका भारी-भरकम कोर्स अंग्रेजी भाषा में है। घर पर बच्चा हिंदी या फिर अपनी मातृभाषा में बात करता है, उसके आसपास भी ऐसा ही माहौल है। जबकि स्कूल में वह पढ़ रहा है अंग्रेजी। जिन चींजों के नाम वह अपनी भाषा में जानकर, समझकर बड़ा हुआ है उन्हें सर्वथा नई भाषा में समझना उसके लिए किसी तनाव से कम नहीं। परिणाम होता है बिना उत्साह के उसका उन शब्दों को रटना। जब वह रटने में स्वयं को असमर्थ पाता है तो दो तरह के तनाव उसके समक्ष होते हैं प्रथम पिछड़ने का, द्वितीय टीचर की डांट का। अपने शिक्षण कार्य के दौरान इन बच्चों पर किए जा रहे चिंतन मनन और शोध से इस निष्कर्ष तक पहुंच सका कि भाषा की समस्या के कारण स्कूल जाने के नाम पर इन बच्चों को तनाव होता है और तरह-तरह के बहाने बनाते हैं ताकि स्कूल न जाना पड़े। जब यह स्थिति लंबे समय तक रहती है और इसका कारण समझने में अभिभावक और शिक्षक असमर्थ होते हैं तब चिड़चिड़ेपन, अवसाद और निराशा का शिकार हो जाता है। ये सभी मानसिक अस्वस्थता के लक्षण हैं। छोटी उम्र के बच्चों में शिक्षा, शिक्षक और पढ़ाई के प्रति नकारात्मक सोच विकसित हो जाती है। जो कभी-कभी ताउम्र रह जाती है। बच्चे में कुंठा घर कर जाती है। तात्पर्य यह कि उसके व्यक्तित्व का संतुलित विकास नहीं हो पाता।

ऐनी बीसेंट का कहना है कि बालक को अंततोगत्वा समाज में ही रहना है। इस लिहाज से शिक्षा का उद्देश्य बालक का समाजीकरण है। समाजीकरण की प्रक्रिया का आधार ही भाषा है। जब तक बालक और समाज की भाषा में एकरूपता नहीं होगी तब तक इस प्रक्रिया में बाधा रहेगी। इसीलिए श्रीमती बीसेंट ने प्राथमिक स्तर की शिक्षा हेतु मातृभाषा को ही प्राथमिकता दी है। भाषाशास्त्री राइबर्न कहते हैं, मातृभाषा एक उपकरण, आनंद, प्रसन्नता और ज्ञान का स्रोत है, रुचियों एवं अनुश्रुतियों के निर्देशक और विधाता द्वारा दी गई उस सर्वोत्तम शक्ति के प्रयोग का साधन है जिसके द्वारा हम उसके निकट होते हैं। वहीं मातृभाषा में शिक्षा को शिक्षा का माध्यम बनाने की वकालत करते हुए अंग्रेजी लेखक व विचारक वेल्सफोर्ड का कहना है कि केवल एक ही भाषा में हमारे भावों की स्पष्ट व्यंजना हो सकती हैं, केवल एक ही भाषा के शब्दों में सूक्ष्म संकेतों को हम सहज और निश्चित रूप से ग्रहण कर सकते हैं। यह वह भाषा होती है जिसे हम अपनी माता के दूध के साथ सीखते हैं। जिसमें हम अपनी प्रारंभिक प्रार्थनाओं, हर्ष तथा शोक के उद्गारों को व्यक्त करते हैं। किसी दूसरी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना विद्यार्थी के श्रम को अनावश्यक रूप से बढ़ाना ही नहीं अपितु उसके मस्तिष्क की स्वतंत्र गति को पंगु भी बना देना है।

आरंभिक स्तर पर हमारे देश में यही कुछ हो रहा है। दो-ढाई साल के बच्चों को एक ऐसी भाषा से शिक्षा दी जा रही है जो समाज के एक विशेष वर्ग तक ही सीमित है, जो जनसामान्य की भाषा नहीं है। इस अंतर को पाटने के लिए उसे बहुत अधिक श्रम करना पड़ता है। बहुत बार तो उसके समक्ष भ्रम की स्थिति होती है। क्योंकि घर में जिस वस्तु को वह चावल, दाल या अन्य नामों से जानता है, वहीं स्कूल में  अचानक दूसरे नामों से उसके सामने होती हैं। भ्रम की इस स्थिति में यदि बालक के साथ धैर्य से पेश नहीं हुआ गया तो निश्चित ही बच्चा मानसिक तनाव का शिकार हो जाता है।

मनोविज्ञान के अनुसार शिक्षण में बालक को उन्हीं बातों में रुचि होती है जो उसके पूर्व अनुभवों से संबद्ध हो। अर्थात् बालक उन बातों को आसानी से सीख लेते हैं जो उनके अब तक के अनुभवों से जुड़े हों। बालक ये अनुभव अपनी भाषा में ही प्राप्त किए हुए होता है। विशेषकर भाषा शिक्षण में तो यह बात सौ फीसदी लागू होती है, क्योंकि भाषा शिक्षण में बोलना, समझना, लिखना और पढ़ना शामिल है। भाषा शिक्षण के इन अंगों में केवल और केवल मातृभाषा से ही अधिकार प्राप्त किया जा सकता है। इसीलिए विश्व के प्राय: सभी देशों में भाषाशास्त्री हो या विचारक या फिर शिक्षा-शास्त्री, सभी एकमत है कि प्राथमिक स्तर पर शिक्षा मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए। पं. मदनमोहन मालवीय के अनुसार किसी विदेशी भाषा का मातृभाषा के स्थान पर ज्ञान कराना मूर्खतापूर्ण है। वहीं विनोबा भावे कहते हैं ‘मां से ग्रहण की गई भाषा से आशय क्षेत्र विशेष की उस भाषा से है जिसके माध्यम से मौखिक व लिखित विचार विनिमय होता है।’ सिर्फ हमारे देश में ही नहीं अपितु विश्व के अनेक देशों के शिक्षाशास्त्री तथा मनोवैज्ञानिकों की भी यही राय है कि प्रारंभिक अवस्था में बच्चों को उनकी मातृभाषा में ही शिक्षा दी जानी चाहिए। मार्टिन लूथर, जॉन काल्विन, रावेल, मिल्टन, मॉटेन, बेकन, कमेनियस, जॉन लॉक और पेस्टोलॉजी जैसे बुध्दिजीवियों ने काफी पहले ही अपनी-अपनी शासन व्यवस्था को आगाह कर दिया था कि अन्य भाषा में शिक्षण देना मनुष्य के शीघ्र विकास में अवरोध और त्रुटि उत्पन्न करता है। रूसो जब यह कहते हैं कि शिक्षा का प्रमुख कार्य मनुष्य को उसके वास्तविक रूप में मनुष्य बनाना है। तब उनका आशय यही होता है।

मातृभाषा में शिक्षा का एक ओर जहां मनोवैज्ञानिक आधार है। वहीं एक हद तक यह देश की संस्कृति से भी जुड़ा मसला है। शिक्षा के लिए गठित जाकिर हुसैन कमिटी की सिफारिश है कि संपूर्ण शिक्षा का आधार मातृभाषा ही होनी चाहिए। उसका कहना है कि जो सरलता से लिख-पढ़ सकता है उसी के पास सुलझे और स्पष्ट विचार होते हैं। मातृभाषा के माध्यम से ही जाति की परंपरा, संस्कृति एवं भावनाओं को समझा जा सकता है। अत: यह सामाजिक शिक्षा का अमूल्य साधन हो सकती है। तथा इसके द्वारा सभी नैतिक और धार्मिक गुण प्राप्त किए जा सकते हैं। बच्चों के भाव प्रकाशन का मातृभाषा एक सर्वश्रेष्ठ साधन है। वहीं मातृभाषा से शिक्षा की वकालत करते हुए गांधी जी कहते हैं कि शिक्षा मातृभाषा द्वारा ही दी जानी चाहिए क्योंकि अंग्रेजी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने से बालक में परिचित भाषा की दुरूहता के कारण विचारों की स्पष्टता नहीं होती। मातृभाषा को बच्चा जन्म से ही वातावरण से सीख लेता है। उस भाषा में अपने विचारों को स्पष्टता से व्यक्त कर सकता है। इस दृष्टि से सरकार के निर्णय को देखा जाए तो यह एक समझदारी भरा निर्णय प्रतीत होता है क्योंकि ऐसे ग्रामीण छात्र जो हिंदी नहीं जानते उन्हें उनकी ही भाषा में शिक्षा देने से निश्चित ही छात्रों की रुचि बढेगी।

– डाॅ. धनञ्जय मणि त्रिपाठी

( लेखक परिचय:  डाॅ धनञ्जय मणि त्रिपाठी। जन्म- 06 अगस्त 1978, जनपद कुशीनगर, उत्तर प्रदेश। शिक्षा- पर्यावरण विज्ञान से एम. एस सी. (स्वर्ण पदक), वनस्पति विज्ञान से पीएच.डी. व बी.एड.। कार्यक्षेत्र- शिक्षा, पत्रकारिता और साहित्य की दुनिया में विगत दो दशकों से कार्यरत। वर्ष 1994 से 2015 तक पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय रहे हैं। वर्तमान में बेसिक शिक्षा विभाग, उत्तर प्रदेश में शिक्षक है।  साहित्यकार के रूप में सक्रिय आपके सैकड़ों कविता, कहानी, फीचर और लेख प्रतिष्ठित अखबारों तथा पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। आपके कार्यक्रम आकाशवाणी और दूरदर्शन से नियमित प्रसारित होते रहे हैं । )