‘ऋजोर्भाव: इति आर्जव: अर्थात आत्मा का स्वभाव ही सरल स्वभाव है इसलिए प्रत्येक प्राणी को सरल स्वभाव रखना चाहिए। आत्मा के स्वभाव को प्राप्त करने के लिए हमें मन-वचन-काय से पर पदार्थों से विरक्ति का भाव अपनाते हुए स्वयं में रत रहना होगा तभी हमारी आत्मा सरल स्वभाव को प्राप्त कर पाएगी। मन-वचन-काय पूर्वक कुटिलता का त्याग करना ही आर्जव धर्म है।
जैसे आईने में वही दिखाई देता है जो सामने है यदि अच्छा है तो अच्छा और यदि बुरा है तो बुरा। कितना भी आईना साफ कर लीजिए यदि स्वयं में दाग है तो वो दिखाई ही देगा और स्वयं का दाग हटाते ही पुन: अच्छा स्वरूप दिखाई देने लगेगा। ऐसे ही यदि जीवन के आईने में आत्मदर्शन करना चाहते हैं तो मायाचारी जैसी सभी बुराइयों को त्यागना होगा।
सहज-सरल व्यक्ति के जीवन में कुटिलता के लिए कोई स्थान नहीं होता है। वह अपने सहज-सरल जीवन की पोथी के एक-एक पन्ने में अध्यात्म, सुकून,आनंद के क्षण लिखता है। ऐसे व्यक्ति के जीवन में यदि कठिनाइयाँ भी आती हैं तो वो समताभाव धारण करके सहज ही उनको दूर कर देता है।
जिसके मन में ऋजुता का भाव प्रकट होता है वह सुख और दुख दोनों ही परिस्थितियों में सहज रहता है। किन्तु कुटिल व्यक्ति सरलता के स्वभाव के ऊपर कुटिलता और मायाचारी का पर्दा लगा लेता है और अपने वास्तविक स्वभाव को पहचानना ही नहीं चाहता है। कुटिल व्यक्ति की मन: स्थिति बहुत विचित्र होती है वह कोई भी कार्य सहजता से नहीं करता।
आर्जव बसंत है पतझड़ नहीं
मन सहज और सरल न होने से वह दूसरों पर और स्वयं पर अविश्वास करके सभी कार्यों में विघ्न उत्पन्न करता है। कहा भी गया है कि – ‘माया तिर्यग्योनस्य अर्थात मायाचारी से तिर्यञ्चगति का बंध होता है। क्या ? ऐसी कुटिलता के साथ मनुष्य जीवन को निरर्थक करना समझदारी है ?
इस बारे में जऱा सोचकर देखिए और यदि मन का उत्तर नकारात्मक आए तो समझ लीजिए कि अब वो समय आ गया है जब आपको कुटिलता का बाहरी आवरण छोड़कर, जीवन की स्वाभाविक सरलता को प्रकट करना। मायाचारी व्यक्ति कभी भी धर्म को धारण नहीं कर सकता। धर्म को मन में स्थापित करने के लिए उसे छल-कपट, दिखावा आदि सभी बुराइयों को त्यागना होगा।
कविवर द्यानतराय जी लिखते हैं कि –
कपट न कीजे कोय, चोरन के पुर ना बसें।
सरल-सुभावी होय, ताके घर बहु-संपदा।।
कहने का भाव है कि किसी को भी छल-कपट कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि चोरों के गांव कभी नहीं बसते अर्थात धन-सम्पत्ति चोरों के यहां नहीं होती वे हमेशा निर्धन ही होते हैं। किन्तु जो जीव सरल स्वभावी होते हैं, उनके घर में संपदा की अपने आप वृद्धि होती है।
आर्जव धर्म अपनाने से देश-दुनिया में शांति आयेगी
अत: छल, कपट, मायाचारी, ढोंग, बनावट एवं कृत्रिमता आदि को अपने जीवन से निकालने का प्रयास कीजिए और इन सभी से रहित जीवन आचरण में उत्तम आर्जव धर्म को प्रकट कीजिए तभी हमारे जीवन की सार्थकता है।
हम कह सकते हैं कि आर्जव धर्म जीवन की पोथी को सहज और सरल तरीके से पढऩा-लिखना-समझना सिखाता है जिससे हम धर्म के सोपान पर अपना क़दम मज़बूती से रखते हुए आगे बढ़ सकते हैं।
कहा भी गया है कि -:
‘बुद्धि तेरी बड़ी विलक्षण, बात समझता सबके मन की।
पर उल्टी सीधी बात मानकर, खाल खींचता भोले जन की।।
जीवन सुख को चाहने वाला, छल प्रपंच से रहता दूर ।
तन, मन, बुद्धि शुभ के अर्पण, सुख प्रदान करती भरपूर।।
(जाप मंत्र -ऊँ हृीं उत्तम आर्जव धर्मांगाय नम:)
डॉ. इन्दु जैन राष्ट्र गौरव, दिल्ली
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