अमर शहीद क्रांतिकारी पंडित रामप्रसाद बिस्मिल की जयंती पर विशेष
सुमंगल दीप त्रिवेदी
जब भी क्रांतिकारियों की बात होती है, तो पंडित राम प्रसाद बिस्मिल का नाम आना लाज़मी है। ऐसे में एक ग़ज़ल भी दिमाग़ में आती है, जिसको ज़ुबान गुनगुनाने लगती है, वह है…
सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है,
देखना है ज़ोर कितना, बाज़ू-ए-कातिल में है।
…तो यह था झूठ
लेकिन, इस ग़ज़ल से जुड़ा एक झूठ ‘बिस्मिल’ के नाम के साथ ऐसा जुड़ा कि वह ‘सच’ हो गया।
दरअसल, देशभक्ति की भावना से भरी यह गजल अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल का प्रतीक सी बन गई है। लेकिन, बहुत कम ही लोग यह जानते हैं इसकी रचना रामप्रसाद बिस्मिल ने नहीं, बल्कि शायर बिस्मिल अज़ीमाबादी की थी।
बिस्मिल अज़ीमाबादी का असली नाम सैय्यद शाह मोहम्मद हसन था। वो सन 1901 में पटना से 30 किमी दूर हरदास बिगहा गांव में पैदा हुए थे।
‘बिस्मिल’ ने फांसी के वक़्त गाई थी यह ग़ज़ल
दरअसल, इस ग़ज़ल का देश की आज़ादी की लड़ाई में अहम योगदान रहा है। यह ग़ज़ल राम प्रसाद बिस्मिल की ज़ुबान पर हर वक़्त रहती थी। बिस्मिल के क्रांतिकारी साथी जेल से पुलिस की गाड़ी में जाते हुए, कोर्ट में मजिस्ट्रेट के सामने पेश होते हुए और लौटकर जेल आते हुए एक सुर में इस ग़ज़ल को गाया करते थे। 1927 में फांसी पर चढ़ते समय भी यह ग़ज़ल उनकी ज़ुबान पर थी।
सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।
देखना है ज़ोर कितना, बाज़ू-ए-कातिल में है।।
एक से करता नहीं क्यूँ, दूसरा कुछ बातचीत।
देखता हूँ मैं जिसे, वो चुप तेरी महफ़िल में है।।
ए शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत, मैं तेरे ऊपर निसार।
अब तेरी हिम्मत का चर्चा, गैर की महफ़िल में है।।
वक्त आने दे, बता देंगे तुझे ऐ आसमान।
हम अभी से क्या बतायें, क्या हमारे दिल में है।।
खैंच कर लायी है सबको, कत्ल होने की उम्मीद।
आशिकों का आज जमघट, कूच-ए-कातिल में है।।
है लिये हथियार दुश्मन, ताक में बैठा उधर।
और हम तैय्यार हैं,सीना लिये अपना इधर।।
खून से खेलेंगे होली, ग़र वतन मुश्किल में है।
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।।
हाथ जिनके हो जुनूँ, कटते नहीं तलवार से।
सर जो उठ जाते हैं वो, झुकते नहीं ललकार से।।
और भड़केगा, जो शोला-सा हमारे दिल में है।
सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।।
हम तो घर से निकले ही थे, बाँधकर सर पे कफ़न।
जाँ हथेली पर लिये, लो बढ़ चले हैं ये कदम।।
जिन्दगी तो अपनी मेहमाँ, मौत की महफ़िल में है।
सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।।
यूँ खड़ा मक़तल में क़ातिल, कह रहा है बार-बार।
क्या तमन्ना-ए-शहादत, भी किसी के दिल में है।।
दिल में तूफ़ानों की टोली, और नसों में इंक़लाब।
होश दुश्मन के उड़ा देंगे, हमें रोको ना आज।।
दूर रह पाये जो हमसे, दम कहाँ मंज़िल में है।
वो जिस्म भी क्या जिस्म है, जिसमें ना हो खूँ-ए-जुनून।।
वो तूफ़ानों से क्या लड़े, जो कश्ती-ए-साहिल में है।
सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।।
लिखीं कईं बेहतरीन ग़ज़लें
रामप्रसाद बिस्मिल ने भले ही यह ग़ज़ल नहीं लिखी थीं, लेकिन उन्होंने कई बेहतरीन ग़ज़ल लिखी हैं। लीजिये, पेश है-
मिट गया जब, मिटने वाला, फिर सलाम आया, तो क्या !
दिल की बर्बादी, के बाद, उनका पयाम आया, तो क्या !
मिट गईं, जब सब उम्मीदें,
मिट गए, जब सब ख़याल।
उस घड़ी गर नामावर,
लेकर पयाम आया तो क्या !
ऐ दिले-नादान मिट जा,
तू भी कू-ए-यार में,
फिर मेरी नाकामियों के बाद, काम आया तो क्या !
आख़िरी पन्नों में लिखी अशफ़ाक के लिए यह बात
यूँ तो रामप्रसाद बिस्मिल के बारे में हमें काफ़ी प्रामाणिक जानकारी मिलती है। उसका सबसे महत्वपूर्ण आधार उनकी आत्मकथा है। अपनी आत्मकथा के अंतिम पन्नों में बिस्मिल कुछ जरूरी बातें कहते हैं, जो हमें जरूर जाननी चाहिए। बिस्मिल फांसी की सजा पाने के बाद जेल में लिखते हैं- “काकोरी षड्यंत्र में अशफाक उल्ला खान तो अंग्रेजी सरकार से दया प्रार्थना करने पर राजी ही ना थे। उनका तो अटल विश्वास यही था कि खुदा बंद करीम के अलावा किसी दूसरे से प्रार्थना नहीं करनी चाहिए, परंतु मेरे विशेष आग्रह से ही उन्होंने सरकार से दया प्रार्थना की थी इसका दोषी मैं ही हूं।”