आज आतंकी माँगते हैं “रहम की भीख”, पढ़िए, उस दौर से इस दौर तक, कितना बदला ‘हिन्दुस्तान’
शैलेन्द्र जैन ‘अप्रिय’
नई दिल्ली। जम्मू-कश्मीर में धारा 370 और 35(ए) की समाप्ति के बाद सब कुछ सामान्य सा होने लगा था। हालाँकि, सरकार को कई महीनों तक कश्मीर की सुरक्षा के लिए हजारों अर्धसैनिक बलों के जवानों को वहाँ तैनात करना पड़ा। कई अलगाववादी नेताओं की नेतागिरी मिट गई। जिनकी बची भी रही, वे ख़ुद किसी काम के नहीं बचे। लेकिन, इन सबके बीच कुछ ऐसा भी होता रहा, जिसकी जरूरत कश्मीर में सन 80 के दशक से थी। वह था, आतंकियों के हाकिमों और उनको पनाह देने वालों को जड़ से मिटाना। केन्द्र में वर्तमान सरकार के आने के बाद से ही यह तो साफ हो गया था कि देश की सुरक्षा के सम्बन्ध में सरकार किसी भी प्रकार का कोई समझौता नहीं करेगी। किसी भी कीमत पर नहीं करेगी। उसकी बानगी भी सरकार ने म्यांमार में उल्फा संगठनों द्वारा किए गए हमले के जवाब में सर्जिकल स्ट्राइक के तौर पर दे दिया था। कश्मीर में भी सैन्य बलों द्वारा ढूँढ़-ढूँढ़ कर आतंकवादियों का ‘सफाई अभियान’ भी बदस्तूर जारी था। साथ ही, उनके हाकिम भी फ़ौज़ के निशाने पर थे।
आपको याद होगा, जब 8 जुलाई 2016 को भारतीय सैन्यबलों ने मोस्ट वांटेड और मोस्ट अवेटेड आतंकी बुरहान वानी को कोकरनाग में ढेर कर दिया था। कश्मीर के कई हिस्सों में अशांति फैल गई थी। बुरहान के एनकाउंटर के बाद बिगड़ी स्थिति से निपटने में सुरक्षाबलों को ख़ासी मुश्किलों का सामना करना पड़ा व कई मुठभेड़ों में करीब 51 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। आज स्थिति सामान्य होती जा रही है। सेना ने कश्मीर में बारामुला को पहला आतंकी विहीन जिला घोषित किया था। लेकिन, इन सबके बीच एक सवाल मन को कचोटता है कि आख़िर, कश्मीर में इन आतंकी वारदातों की शुरुआत कब से हुई? इन आतंकी वारदातों का असल जिम्मेदार है कौन? कौन है वह जिसने सबसे पहले आतंकियों को शरण दी? इन सवालों के जवाब जानना बहुत जरूरी है।
दरअसल, हमें 80 के दशक में वापस लौटना होगा। एक बार फिर पन्ने पलटने होंगे, उस तारीख़ के जिसने पूरी दुनिया के सामने तत्कालीन हिन्दुस्तानी सरकार का डरपोक और कायराना चेहरा सामने ला दिया था। वह तारीख थी 8 दिसंबर 1989। केन्द्र में वी.पी. सिंह की सरकार को अभी एक हफ़्ता भी नहीं हुआ था। दोपहर करीब 3 बजे गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद गृह मंत्रालय में पहली बार अधिकारियों के साथ बैठक कर रहे थे। ठीक उसी वक्त, उनकी बेटी रूबिया सईद, जो एमबीबीएस का कोर्स पूरा करने के बाद श्रीनगर में इंटर्नशिप कर रही थी, हॉस्पिटल से ड्यूटी पूरी करने के बाद घर के लिए निकली। वह श्रीनगर के लाल चौक से बाहरी इलाके नौगाम की तरफ जा रही एक ट्रांजिट वैन नंबर JFK 677 में सवार हुई। वैन जैसे ही चानपूरा चौक के पास पहुंची, उसमें सवार तीन लोगों ने बंदूक की दम पर वैन को रुकवा लिया। रूबिया को उतारकर किनारे खड़ी नीले रंग की मारुति वैन में बिठा लिया और फ़रार हो गए।
दरअसल, इस अपहरण कांड का मास्टरमाइंड अशफाक वानी जेकेएलएफ का नेता था और 1990 में मारा गया था। आतंकी बनने से पहले वह एक एथलीट था। उसी ने गृहमंत्री की बेटी रूबिया के अपहरण की योजना बनाई थी। अपहरण के पहले उसने मुफ्ती के घर और अस्पताल की रेकी भी की थी।
अपहरण के करीब दो घंटे बाद जेकेएलएफ के जावेद मीर ने एक लोकल अखबार को फोन करके गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रूबिया सईद के अपहरण की जानकारी दी। दुनिया की सबसे बड़ी आबादी के लाॅ एंड ऑर्डर की जिम्मेदारी उठाने वाला व्यक्ति अपनी बेटी की सुरक्षा करने में नाकाम रहा। दिल्ली से श्रीनगर तक, पुलिस से इंटेलीजेंस तक बैठकों का दौर शुरू हुआ। मध्यस्थता पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा। मध्यस्थता के लिए कश्मीर घाटी के नामचीन लोगों जैसे श्रीनगर के जाने-माने डाक्टर डॉ ए.ए. गुरु को लगाया गया। वहीं, एक दूसरे चैनल के माध्यम से पत्रकार जफर मिराज, अब्दुल गनी लोन की बेटी शबनम लोन और अब्बास अंसारी को भी लगाया गया। एक तीसरा चैनल भी खोला गया। इसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस मोतीलाल भट और एडवोकेट मियां कयूम को जोड़ा गया। शुरुआत में, जेकेएलएफ की तरफ से रूबिया सईद की रिहाई के बदले 20 आतंकवादियों की रिहाई की मांग की गई। जिसे बाद में घटाकर 7 आतंकवादियों की रिहाई तक सीमित कर दिया। सरकार मंथन में लगी थी। क्या किया जाए? कैसे सुरक्षित रिहाई हो? सारी कवायद इसी पर चल रही थी। 5 दिन बीत चुके थे। 8 दिसंबर से शुरू हुआ बैठकों का दौर 13 दिसंबर तक पहुंच चुका था।
13 दिसंबर 1989 की सुबह दिल्ली से 2 केंद्रीय मंत्री, विदेश मंत्री इंद्र कुमार गुजराल और नागरिक उड्डयन मंत्री आरिफ मोहम्मद खान को दिल्ली से श्रीनगर भेजा गया। एक दिन पहले ही जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री फारूक़ अब्दुल्ला लंदन से श्रीनगर लौट आये थे। 13 दिसंबर की सुबह ही मुख्यमंत्री अब्दुल्ला की मुलाक़ात दोनों केंद्रीय मंत्रियों से हुई। इस बैठक में रूबिया सईद को रिहा कराने के लिए आतंकवादियों को छोड़ने पर बातें शुरू हुई। फारूक़ अब्दुल्ला ने आतंकवादियों को छोड़ने पर अपनी असहमति जताई, लेकिन अंततः उन्हें दिल्ली के दबाव में झुकना पड़ा।
दोपहर होते-होते सरकार और अपहरणकर्ताओं के बीच समझौता हो गया। समझौते के तहत 5 आतंकवादियों को रिहा किया गया। कुछ ही घंटे बाद यानी 13 दिसंबर की शाम लगभग 5 बजे अपहरणकर्ताओं ने रूबिया सईद को सोनवर स्थित जस्टिस मोतीलाल भट्ट के घर पर शाम के साढ़े सात बजे का वक्त सुरक्षित पहुँचा दिया था। रूबिया की अपहरण के 122 घंटे बाद रिहाई हुई थी। इस मामले में वीपी सिंह सरकार को आतंकवादियों के सामने झुकना पड़ा था।
उसी रात करीब 12 बजे एक विशेष विमान से रूबिया सईद को दिल्ली लाया गया। हवाई अड्डे पर तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने कहा कि, एक पिता के रूप में मै खुश हूं लेकिन एक राजनेता के रूप में मैं समझता हूं कि ऐसा नहीं होना चाहिए था। किडनैपिंग नहीं होनी चाहिए थी।
इस सवाल पर कि अगर होम मिनिस्टर की बेटी की जगह कोई और लड़की होती तो भी क्या सरकार इसी तरह से बर्ताव करती? सईद ने कहा, “मैं नहीं जानता… क्योंकि मैं भी इंसान हूं। लड़की तो लड़की होती है। उनकी आवाज भर्राई हुई थी। बेबसी साफ झलक रही थी।”
लेकिन, श्रीनगर का माहौल इस घटना से काफी जुदा-जुदा था। घाटी में काफी गहमा-गहमी थी। लोग सड़कों पर उतर आए थे। यह खुशी रूबिया सईद की रिहाई के लिए नहीं थी, बल्कि रिहा किये गये आतंकवादियों के लिए थी। पूरी घाटी में अलगावाद के नारे गूँजने लगे। ‘हम क्या चाहते! आजादी’ और ‘जो करे खुदा का खौफ, वो उठा ले क्लाश्निकोव’ जैसे नारे उस दिन श्रीनगर की सड़कों पर सरेआम लगाए जा रहे थे।
वह आज़ाद हिन्दुस्तान के इतिहास में पहला मौका था जब सरकार आतंकियों के सामने घुटने टेक चुकी थी। हिन्दुस्तान शर्मसार भी था और भविष्य को लेकर चिंतित भी कि वह कब इनसे निपटने में खुद को सामर्थ्यवान बना पाएगा।