मिट्टी से भविष्य गढ़ती शालू, बेटियों के सम्मान की नई मिसाल

रिपोर्ट -आलोक कुमार तिवारी


पिता की मौत के बाद पढ़ाई के साथ कुम्हारगिरी को बनाया जीवन का आधार, पूरे परिवार की संभाली ज़िम्मेदारी

कसया, कुशीनगर | जब हालात ने साथ छोड़ा, तो शालू ने हार मानने के बजाय हालात से लड़ने का हौसला चुना। कुशीनगर नगरपालिका परिषद के वार्ड नंबर 6, बाबा साहब आप्टे नगर विशंभरपुर की यह साधारण-सी दिखने वाली बेटी असाधारण साहस और संघर्ष की प्रतीक बन गई है। वह अपने हौसले की कुम्हारी से न केवल मिट्टी को आकार दे रही है, बल्कि पूरे परिवार के भविष्य को भी गढ़ रही है।

वर्ष 2021 में एक सड़क दुर्घटना में शालू के पिता स्व. सुरेंद्र प्रजापति की मृत्यु हो गई। परिवार के इकलौते कमाने वाले के जाने के बाद जीवन की गाड़ी जैसे पटरी से उतर गई थी। लेकिन इसी क्षण शालू ने अपने भीतर छिपी जुझारू बेटी को पहचान लिया — एक ऐसी बेटी, जो दुख से भागती नहीं, उसका सामना करती है।

मिट्टी में छिपी उम्मीद की खुशबू
शालू ने अपने पारिवारिक पेशे — कुम्हारगिरी — को फिर से जीवित किया। वह मिट्टी से बर्तन और चुक्कड़ (बट्टा) बनाती हैं और बाजार में बेचती हैं। इन्हीं से मिले पैसों से न केवल घर का खर्च चलता है, बल्कि अपने भाई-बहनों की पढ़ाई और दिव्यांग बड़े भाई की देखभाल भी करती हैं। माँ उदासी देवी का सहारा भी वही हैं।

आज वह पारंपरिक कुम्हारों की तरह कुशलता से बर्तन बनाती हैं। पढ़ाई के प्रति उनकी लगन ऐसी है कि इसी वर्ष उन्होंने 10वीं की परीक्षा भी सफलतापूर्वक पास की है। बड़ी बहन रेखा 12वीं, छोटी बहन सोली 7वीं और छोटा भाई हिमांशु 6वीं पास कर चुके हैं। इन सभी की शिक्षा का बोझ भी शालू ने उठाया है — बिना शिकन, बिना शिकायत।

बेटियों की शक्ति की जीवंत मिसाल
शालू का जीवन सिखाता है कि अगर इरादे मजबूत हों तो कोई भी परिस्थिति बड़ी नहीं होती। वह आज सिर्फ अपने परिवार की रीढ़ नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए एक प्रेरणा हैं। उनका संघर्ष, समर्पण और साहस आने वाली पीढ़ियों को सिखाएगा कि बेटियाँ जब ठान लें, तो मिट्टी से भी सपना उगा सकती हैं।

जहाँ दुनिया अक्सर बेटियों को बोझ समझती है, वहाँ शालू जैसी बेटियाँ चुपचाप दुनिया का बोझ उठाने का हुनर रखती हैं। वह बताती हैं कि ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ सिर्फ नारा नहीं, एक सच्चाई बन सकता है — अगर हम शालू जैसी बेटियों को सराहें और समर्थन दें।