पड़ताल : बीजेपी के राजमहल में कौन लगा रहा सेंध?

लखनऊ। उत्तर प्रदेश की राजनीति में पंचायत और निकाय चुनाव अक्सर बड़े चुनावों से पहले जनता के मूड का बैरोमीटर साबित होते हैं। सीतापुर की महमूदाबाद नगर पालिका उपचुनाव में भाजपा को मिली करारी हार इसी बैरोमीटर का ताज़ा संकेत है। यहां समाजवादी पार्टी (सपा) ने न केवल जीत दर्ज की, बल्कि भाजपा को अपमानजनक तरीके से पांचवें स्थान पर धकेल दिया। भाजपा प्रत्याशी संजय वर्मा को जहां महज 1332 वोट मिले, वहीं सपा प्रत्याशी आमिर अरफात 8825 वोट पाकर चेयरमैन बने। इस नतीजे ने भाजपा के भीतर हलचल मचा दी है और सवाल उठ खड़ा हुआ है — क्या भाजपा का किला दरक रहा है?

गुटबाजी ने डुबोया खेल

पड़ताल में सामने आया कि महमूदाबाद में भाजपा की हार की सबसे बड़ी वजह अंदरूनी गुटबाजी रही। पार्टी के भीतर दो धड़े लंबे समय से आमने-सामने हैं। एक गुट स्थानीय विधायक के इर्द-गिर्द सक्रिय है, तो दूसरा पुराने संगठनात्मक नेताओं का है। टिकट वितरण में विधायक खेमे की दबंगई चली और संजय वर्मा को प्रत्याशी बना दिया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि दूसरा गुट भीतरखाने विरोध में उतर आया। कई कार्यकर्ताओं ने प्रचार में सिर्फ औपचारिकता निभाई, जबकि कुछ ने निर्दलीय उम्मीदवारों को समर्थन दे दिया।

स्थानीय सूत्र बताते हैं कि भाजपा के कार्यकर्ता तक यह कहते सुने गए कि “ऊपर से थोपे गए प्रत्याशी को जिताना हमारी जिम्मेदारी नहीं।” यही नाराजगी वोटों में साफ झलकी। निर्दलीय अतुल कुमार वर्मा को 7989 वोट मिले, जो भाजपा के परंपरागत वोट बैंक में सेंध का नतीजा माना जा रहा है।

जातीय समीकरण भी बने गले की फांस

उत्तर प्रदेश की राजनीति जातीय गणित से अलग नहीं हो सकती। महमूदाबाद में मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं। सपा ने इस बार आमिर अरफात को प्रत्याशी बनाया, जिससे मुस्लिम वोट बड़े पैमाने पर एकजुट हो गए। दूसरी ओर भाजपा प्रत्याशी ब्राह्मण समाज से आते थे, लेकिन स्थानीय ब्राह्मणों में भी असंतोष था। एक बड़ा हिस्सा निर्दलीय उम्मीदवारों की ओर खिसक गया। यादव और अन्य पिछड़ी जातियों के वोट पहले से ही सपा की तरफ थे।

भाजपा को उम्मीद थी कि गैर-यादव ओबीसी और कुछ हिस्से दलित समाज से उसे समर्थन मिलेगा, मगर यहां भी समीकरण बिगड़ गए। पासी और निषाद वोटरों में नाराजगी देखने को मिली, क्योंकि उनका आरोप था कि क्षेत्र में भाजपा सरकार बनने के बावजूद उन्हें उपेक्षित रखा गया। यही कारण है कि भाजपा का सामाजिक समीकरण फेल हो गया।

स्थानीय नाराजगी: वादों का बोझ और जनता से दूरी

पड़ताल में सामने आया कि भाजपा की हार का तीसरा बड़ा कारण स्थानीय नाराजगी रही। महमूदाबाद में लंबे समय से बुनियादी सुविधाओं की किल्लत है — सड़कें टूटी पड़ी हैं, सीवर की समस्या है, साफ-सफाई के हालात खराब हैं और जलभराव हर साल लोगों की जिंदगी मुश्किल करता है। लोगों को शिकायत थी कि भाजपा के चुने हुए प्रतिनिधि सिर्फ चुनाव के वक्त दिखाई देते हैं, बाकी समय क्षेत्र से दूरी बनाए रहते हैं।

महमूदाबाद नगर पालिका के कई वार्डों में लोगों ने खुलेआम कहा कि “विधायक जी दिल्ली-लखनऊ की राजनीति में व्यस्त रहते हैं, हमें कोई देखने वाला नहीं।” यही असंतोष मतों में बदल गया। जनता ने इस बार भाजपा को सबक सिखाने का मन बना लिया।

भाजपा के भीतर बेचैनी

इस हार ने भाजपा के भीतर बेचैनी पैदा कर दी है। सूत्रों का कहना है कि आलाकमान ने प्रदेश नेतृत्व से रिपोर्ट तलब की है। भाजपा के अंदर माना जा रहा है कि अगर गुटबाजी और जनता से दूरी को काबू नहीं किया गया तो आने वाले पंचायत चुनावों में बड़े पैमाने पर नुकसान हो सकता है। पार्टी ने हाल ही में विधायकों और नेताओं का इंटरनल सर्वे कराने का जो फैसला लिया, उसके पीछे भी यही डर है।

सीतापुर की हार को लेकर पार्टी में फुसफुसाहट है कि यह केवल एक उपचुनाव नहीं बल्कि जनता का ‘चेतावनी सिग्नल’ है। खासकर यह सवाल उठ रहा है कि भाजपा अपने पारंपरिक वोटरों को कैसे संभालेगी, क्योंकि अब वही धीरे-धीरे दूर होते दिख रहे हैं।

अखिलेश यादव की बढ़ती उम्मीदें

इस जीत से सपा प्रमुख अखिलेश यादव गदगद हैं। उन्होंने भाजपा की हार को “जनता का फैसला” बताते हुए कहा कि भाजपा का पांचवें स्थान पर आना 2027 की राजनीति का संकेत है। अखिलेश ने संगठन को संदेश दिया कि “अगर हम जमीनी मुद्दों पर डटे रहें तो जनता भाजपा को खारिज कर देगी।”

सपा अब इस जीत को पंचायत चुनावों में भुनाने की रणनीति बना रही है। पार्टी मुस्लिम-पिछड़ा-यादव समीकरण को और मजबूत करने में जुटी है। महमूदाबाद का नतीजा अखिलेश को यह भरोसा देता है कि भाजपा को हराने का मौका अभी भी है।

भाजपा का राजमहल और सेंध की आहट

राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि भाजपा का “राजमहल” यानी उसका मजबूत जनाधार अब पूरी तरह सुरक्षित नहीं रहा। महमूदाबाद की हार इस बात का संकेत है कि स्थानीय स्तर पर पार्टी की पकड़ ढीली हो रही है। गुटबाजी, जातीय समीकरणों की अनदेखी और जनता से दूरी सेंध लगाने का काम कर रही है।

भाजपा चाहे इस हार को “स्थानीय अपवाद” बताए, लेकिन सच्चाई यह है कि ऐसे नतीजे बार-बार दोहराए गए तो वे बड़े चुनावों की दिशा बदल सकते हैं। 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा को इन छोटी हारों को गंभीरता से लेना होगा।