‘मानवता की पत्रकारिता’ के दर्पण गणेश शंकर विद्यार्थी

बलिदान दिवस पर विशेष

नई दिल्ली। आज गणेश शंकर विद्यार्थी का बलिदान दिवस (25 मार्च) है। वे भीड़ से अलग थे, लेकिन वे भीड़ से घबराते नहीं थे। इसीलिए पत्रकारिता जगत में भी उनका नाम सम्मानपूर्वक लिया जाता है। उनका जन्म 26 अक्टूबर 1890 को अतरसुइया में हुआ था। उन्होंने 16 वर्ष की उम्र में ही अपनी पहली किताब “‘हमारी आत्मोसर्गता” लिख डाली थी। गणेश शंकर विद्यार्थी अपनी पूरी जिंदगी में 5 बार जेल गए। गणेश शंकर विद्यार्थी ने किसानों एवं मजदूरों को हक दिलाने के लिए जीवनपर्यंत संघर्ष किया तथा आजादी के आंदोलन में भी सक्रिय रहे। वे छात्र जीवन से ही वामपंथी आंदोलनों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे।

दंगाग्रस्त क्षेत्रों में घूमकर निर्दोषों की जान बचाते रहे

जब अंग्रेजों द्वारा भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दिए जाने की देशभर में तीखी प्रतिक्रिया हुई। इससे घबराकर अंग्रेजों ने देश में सांप्रदायिक दंगे भड़का दिए। सन् 1931 में पूरे कानपुर में दंगे हो रहे थे। भाई-भाई के खून से होली खेलने लगा। सैकड़ों निर्दोषों की जान चली गई। ऐसे में कानपुर में लोकप्रिय अखबार ‘प्रताप’ के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी पूरे दिन दंगाग्रस्त क्षेत्रों में घूमकर निर्दोषों की जान बचाते रहे। कानपुर के जिस इलाके से भी उन्हें लोगों के फंसे होने की सूचना मिलती, वे तुरंत अपना काम छोड़कर वहां पहुंच जाते, क्योंकि उस समय पत्रकारिता की नहीं, मानवता की जरूरत थी। उन्होंने बंगाली मोहल्ले में फंसे दो सौ मुस्लिमों को निकालकर सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया। सही मामले में अगर देखा जाए तो आज के आधुनिक गिरते स्थिति के पत्रकारिता युग में पत्रकारों के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी जी एक “सीख” बन सकते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *