Bihar Election: बिहार में जनता की नहीं, रिश्तेदारों की पसंद बन रही टिकट की बुनियाद!

Bihar Election: बिहार की सियासी जमीन पर एक बार फिर परिवारवाद का रंग गहराता दिख रहा है। आगामी विधानसभा उपचुनाव और संभावित चुनावी तैयारियों के बीच लगभग हर राजनीतिक दल ने अपने-अपने “परिवार कार्ड” को जोर-शोर से खेला है। टिकट वितरण में नेताओं के रिश्तेदारों को तरजीह देकर स्पष्ट संदेश दिया गया है कि सियासत में खून के रिश्ते अक्सर काबिलियत पर भारी पड़ते हैं।

Bihar Election: बिहार की राजनीति में वंश परंपरा

भाजपा ने गौराबौराम से विधायक स्वर्णा सिंह का टिकट काटकर उनके पति सुजीत सिंह को मैदान में उतारा। पूर्व सांसद अजय निषाद ने पार्टी छोड़ी, लेकिन लौटने के बाद अब उनकी पत्नी रमा निषाद को औराई से टिकट दिया गया। पूर्व सांसद गोपाल नारायण सिंह के पुत्र त्रिविक्रम सिंह को औरंगाबाद से टिकट मिला है

जबकि चिराग पासवान ने अपने भांजे सीमांत मृणाल को गरखा से मैदान में उतारा है। लोजपा (रामविलास) के प्रमुख पशुपति पारस के बेटे यशराज भी अलौली से चुनाव लड़ेंगे।हम पार्टी ने एनडीए कोटे से चार सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं, जिनमें से अधिकतर राजनीतिक परिवारों से आते हैं।

पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की बहू दीपा मांझी और उनकी समधन ज्योति देवी क्रमशः इमामगंज और बाराचट्टी से उम्मीदवार हैं। वहीं, अरुण कुमार के बेटे ऋतुराज, भतीजे रोमित और भाई अनिल कुमार भी विभिन्न सीटों से मैदान में होंगे।

वही राजद और कांग्रेस भी पीछे नहीं दरअसल राजद ने शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा को सीवान से टिकट देकर चर्चा बटोरी है। पार्टी के अन्य उम्मीदवारों में तेजस्वी यादव विजय प्रकाश , और समीर कुमार महासेठ जैसे नाम शामिल हैं। कांग्रेस में भी परिवारवाद का बोलबाला है

मदन मोहन झा के पुत्र माधव झा को टिकट मिला है, जबकि पूर्व मंत्रियों के बेटे और रिश्तेदार अलग-अलग क्षेत्रों से मैदान में हैं। आपको बता दे की जदयू में भी नए चेहरों के रूप में राजनीतिक परिवारों से ताल्लुक रखने वाले प्रत्याशी मैदान में हैं। मीनापुर से दिनेश कुशवाहा के पुत्र अजय सहनी और सिकटा से दिलीप वर्मा के पुत्र आदित्य कुमार को टिकट दिया गया है।

यहां तक कि पहली बार चुनाव लड़ रही जनसुराज पार्टी ने भी पूर्व केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह की बेटी को मैदान में उतारा है।बिहार की राजनीति एक बार फिर उसी चक्रव्यूह में उलझती दिख रही है, जहां योग्यता, सामाजिक कार्य और जनसेवा की बजाय खून के रिश्तों को प्राथमिकता दी जा रही है।

सभी प्रमुख दलों ने टिकट वितरण में नेताओं के बेटे, बहू, बेटी, भतीजे और पत्नियों को मौका देकर स्पष्ट कर दिया है कि राजनीति अब एक पारिवारिक विरासत बन चुकी है। यह प्रवृत्ति लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांत—बराबरी और अवसर की समानता—को कमजोर करती है।

जनता के लिए यह एक चेतावनी भी है कि चुनाव में वोट देने से पहले उम्मीदवार की पृष्ठभूमि और उसकी योग्यता को तवज्जो दें, न कि केवल उसके पारिवारिक नाम को। अगर लोकतंत्र को जीवित और सशक्त रखना है, तो परिवारवाद की इस परंपरा को तोड़ना ज़रूरी है।बिहार का अखाड़ा तैयार है – लेकिन क्या जनता अब भी सिर्फ नाम पर वोट देगी, या काम पर भी ध्यान देगी?