लखनऊ. उत्तर प्रदेश के हाथरस की 19 वर्षीय दलित लड़की की मौत के बाद पिछले एक हफ्ते में लगभग हर राजनेता ने पीड़िता के घर तक पहुंचने की कोशिश की है। वहीं खुद को दलितों का निर्विवाद नेता कहने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती की मामले से अनुपस्थिति चौंकाने वाली है।
वैसे वह नियमित रूप से इस घटना के बारे में ट्वीट कर रही हैं और कार्रवाई की मांग कर रही है, लेकिन घटनास्थल पर उनकी अनुपस्थिति ने उनके अपने निर्वाचन क्षेत्र में एक गलत संदेश भेजा है।
वैसे जो लोग मायावती को सालों से देख रहे हैं, उनके लिए मायावती का ऐसा व्यवहार आश्चर्यचकित करने वाला नहीं है। वे अपने खुद के कार्यकाल में भी उन लोगों से मिलने के लिए बाहर नहीं निकली थीं, जो उस समय अत्याचारों के शिकार हुए थे।
ऐसी घटनाओं पर नजर डालें तो 2014 में बदायूं में दो दलित चचेरी बहनों को दुष्कर्म के बाद एक पेड़ से लटका दिया गया था, तब भी मायावती उनके शोक संतप्त परिवारों से मिलने के लिए अपने घर से बाहर नहीं निकलीं थीं।
जबकि उस समय बसपा विपक्ष में थी और समाजवादी पार्टी सत्ता में थी। ऐसे में मायावती दलितों के बीच अपने आधार को मजबूत करने के लिए इस घटना का बखूबी इस्तेमाल कर सकती थीं। लेकिन उन्होंने एक बयान जारी कर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली थी।
बसपा अध्यक्ष के करीबी सूत्रों का दावा है कि मायावती को धूल से एलर्जी है, इसलिए वह ग्रामीण इलाकों में नहीं जाती हैं। सक्रिय राजनीति करने वालों के आगे ऐसा कारण हालांकि टिकता नहीं है। इसके अलावा मायावती अपनी पार्टी में किसी पर इतना भरोसा भी नहीं करतीं कि ऐसे मौकों पर वे उसे अपने प्रतिनिधि के तौर पर भेज सकें, बल्कि पार्टी में कोई नेता ज्यादा सक्रिय होने की कोशिश करता है तो उसे बाहरा का रास्ता दिखा दिया जाता है। यही वजह है कि कभी भी बसपा का जिला स्तर पर कोई विरोध प्रदर्शन या अन्य कार्यक्रम नहीं दिखाई देता है।
बसपा के एक वरिष्ठ विधायक कहते हैं, बहनजी के साथ एक समस्या है कि वह पुराने समय में ही जी रही हैं और उन्हें यह महसूस नहीं हो रहा है कि चीजें बदल गई हैं। दलितों की नई पीढ़ी सत्ता में भागीदारी चाहती है। इस पर अगर कोई भी उन्हें सुझाव देने की कोशिश करता है, तो यह ईशनिंदा से कम नहीं है।
यही वजह है कि अब भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद को उप्र में बढ़त मिली है, जो धीरे-धीरे ही सही, उप्र की दलित राजनीति में अपनी जगह बना रहे हैं। उदाहरण के लिए, हाथरस की घटना में आजाद ग्राउंड जीरो पर पहुंचे और पीड़ित परिवार के साथ घंटों तक रहे, जबकि मायावती ने ट्वीट कर अपनी चिंता व्यक्त कर दी। जाहिर है, उस ट्वीट को अधिकांश दलितों ने देखा भी नहीं होगा।
अगर मायावती को लगता है कि दलितों के पास बसपा के अलावा कोई विकल्प नहीं है तो ये शायद उनकी भूल साबित होगी। उनकी जगह भीम आर्मी अपनी पकड़ बना रही है।
भीम आर्मी में शामिल हुए बसपा के एक पूर्व नेता कहते हैं, चंद्रशेखर अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं के लिए केवल एक फोन कॉल की दूरी पर हैं। वह हमेशा उपलब्ध रहते हैं, जबकि मायावती के तो किसी से मिलने की उम्मीद ही नहीं की जा सकती।
ना ही उन्होंने पार्टी में कोई दूसरा नेता उभरने दिया। ऐसे में संकट के समय हम उन पर निर्भर नहीं रह सकते। अब उनके भाई आनंद और भतीजे आकाश भी उन्हीं के नक्शेकदम पर हैं और यह बसपा को उसके अंत तक ले जाएगा।