सुमंगल दीप त्रिवेदी
बात शुरू होती है वर्ष 1923 से। इसी साल, महाराष्ट्र के नागपुर में मस्ज़िद के सामने से कीर्तन यात्रा निकालने को लेकर विवाद शुरू हुआ था और यह विवाद बदल गया हिन्दू-मुस्लिम दंगों में। चूंकि, उसी के तीन साल पहले महाराष्ट्र के केशवराम बलिराम हेडगेवार, बंगाल में डॉक्टरी पढ़कर 1920 में नागपुर आ गए थे। केशवराम अरविन्द घोष के क्रांतिकारी विचारों से काफी प्रभावित थे। इतना ही नहीं, वे वहाँ यानी बंगाल में अनुशीलन समिति के सदस्य भी बन गए थे। लेकिन, भाग्य का लेखा कौन पढ़ सका है।
1923 में नागपुर में हुए दंगों ने केशवराम की विचारधारा को और स्पष्ट कर दिया था। हेडगेवार को गाँधी की कई नीतियों में खामियाँ भी साफ तौर पर दिख रही थीं। ख़ास बात यह थी कि, ‘जाग्रत’ (हालांकि, कुछ इतिहासकार उन्हें ‘उग्र’ भी कहते आये हैं) हिंदुओं का गाँधी से मोहभंग भी हो रहा था।
इन सभी घटनाओं के मध्य, वर्ष था 1925, विजयदशमी का दिन। डॉ. केशवराम बलिराम हेडगेवार ने ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ की स्थापना की। संघ की स्थापना में हेडगेवार समेत कुल 5 लोग शामिल थे। संघ के डेढ़ दशक तक हुए विस्तार में प्रखर राष्ट्रवाद और हिंदुत्व की अवधारणा से ओतप्रोत किशोरों पर बल दिया गया। इसके विस्तार में डॉ. हेडगेवार का भरपूर साथ दिया कांग्रेस के साथी नेता अप्पाजी जोशी ने।
जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का शुरुआती दौर था, तो इसमें ज़्यादातर ‘किशोर’ यानी ‘टीनएजर्स’ जुड़े थे। वह भी विदर्भ क्षेत्र के। यही किशोर जब आगे की पढ़ाई के लिए देश के विभिन्न शहरों और विश्वविद्यालयों में गए, तब शुरू हुआ ‘संघ’ का असल विस्तार। इन्ही में एक स्वयंसेवक थे प्रभाकर दानी। प्रभाकर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ने पहुंचे। वहां शाखा में प्रभाकर ने आमंत्रित किया अपने जूलॉजी के प्रवक्ता को। ख़ास बात यह थी कि यह प्रवक्ता विषय के अलावा दर्शन और इतिहास पर भी चर्चा करते थे और ‘गुरुजी’ के नाम से मशहूर थे। यही थे ‘माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर’।
जब डॉ. हेडगेवार बनारस प्रवास पर थे, तो उनकी मुलाकात गोलवलकर जी से हुई। ‘डॉ. साहब’ ने ‘गुरुजी’ को नागपुर आने का निमंत्रण दिया। एक ही साल में समय का चक्र कुछ ऐसा चला कि गोलवलकर ख़ुद ही नौकरी छोड़कर नागपुर पहुँच गए। तभी, आरएसएस से उनका भरपूर लगाव और जुड़ाव हुआ। उधर, हेडगेवार जी भी ‘गुरुजी’ को भविष्य के लिए तैयार करने के उद्देश्य से अहम दायित्व सौंप रहे थे। लेकिन, इसी बीच कुछ ऐसा हुआ, जिससे कि डॉ. हेडगेवार को एक बड़ा झटका लगा।
दरअसल, 1936 तक गोलवलकर जी वकालत की पढ़ाई पूरी करके डिग्री हासिल कर चुके थे। लेकिन, गुरुजी की रुचि संघ के बजाय आध्यात्म में ज़्यादा थी। ऐसे में, वे अचानक योग और ध्यान के लिए स्वामी विवेकानंद जी के गुरुभाई स्वामी अखण्डानन्द के सानिध्य में बंगाल रवाना हो गए। यह क्षण डॉ. हेडगेवार के लिए काफी कष्टप्रद था क्योंकि ‘डॉ. साहब’ को ‘गुरुजी’ में संघ के भविष्य को लेकर एक सफल, कुशल और पथ-प्रदर्शक दिखा था। इसलिए वे ‘गुरुजी’ को भविष्य के लिए तैयार करने जुटे हुए थे। हालांकि, एक वर्ष बाद स्वामी जी का देहावसान हो गया और ‘गुरुजी’ पुनः नागपुर आ गए। डॉ. हेडगेवार ने पुनः ‘गुरुजी’ को संघ के लिए तैयार करना शुरू कर दिया था।
अपने अंत समय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशवराम बलिराम हेडगेवार काफी बीमार हो चले थे। संघ को जन्म देकर पालित-पोषित करने वाले हेडगेवार के सामने संघ का नेतृत्व करने वाला उनकी नज़र में तैयार हो चुका था। 21 जून 1940 को देहावसान से एक दिन पूर्व यानी 20 जून को डॉ. केशवराम बलिराम हेडगेवार ने अपने थरथराते और कम्पित करों से माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर को एक चिट्ठी थमाई, जिसमें लिखा था, “इससे पहले कि तुम मेरे शरीर को डॉक्टरों के हवाले करो, मैं तुमसे कहना चाहता हूँ कि अब से संगठन को चलाने की पूरी जिम्मेदारी तुम्हारी होगी।”