आईटी एक्ट की धारा 66ए के तहत दर्ज हो रहे मामलों पर SC ने केंद्र व राज्यों से मांगा जवाब

नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने आईटी एक्ट की धारा 66ए रद्द करने के बावजूद उसके तहत मामला दर्ज किए जाने को लेकर सोमवार को सुनवाई की। सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को नोटिस भेज इस पर जवाब मांगा है। इसी के साथ ही सभी उच्च न्यायालयों के रजिस्ट्रार जनरलों को सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) अधिनियम की धारा 66 ए के निरंतर उपयोग पर एक याचिका के संबंध में नोटिस जारी किया, हालांकि इसे मार्च 2015 में रद्द कर दिया गया था।

2015 में ही रद्द हो चुकी धारा

इस पर सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी सुनवाई करते हुए कहा था कि यह “चौंकाने वाला” और “परेशान करने वाला” था कि धारा 66 ए के तहत मामलों के पंजीकरण में पांच गुना वृद्धि हुई थी, हालांकि इस प्रावधान को साल 2015 में ही रद्द कर दिया गया था। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL) द्वारा दायर की गई एक याचिका में, जस्टिस आरएफ नरीमन और बीआर गवई की पीठ ने कहा कि वे “वह इस पर व्यापक आदेश पारित करेंगे ताकि आईटी अधिनियम की धारा 66 ए के तहत लोगों को बुक करने का यह मामला हमेशा के लिए सुलझाया जा सके।”

पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था राज्य का विषय

सुप्रीम कोर्ट ने हलफनामे में कहा है कि पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था भारत के संविधान के अनुसार राज्य के विषय हैं और अपराधों का पता लगाकर इसकी रोकथाम, जांच व अभियोजन और पुलिस कर्मियों की क्षमता निर्माण मुख्य रूप से राज्यों की जिम्मेदारी है। केंद्र सरकार ने यह हलफनामा गैर सरकारी संगठन एनजीओ PUCL की उस याचिका पर दिया है, जिसमें यह कहा गया है कि धारा 66ए को निरस्त किए जाने के बावजूद इसके तहत मामले दर्ज किए जा रहे हैं।

क्या है धारा 66ए ?

दरअसल हाल के कुछ बरसों में सोशल मीडिया पर कथित तौर पर आपत्तिजनक पोस्ट करने पर जिस धारा में प्रशासन और पुलिस लोगों पर मुकदमा दर्ज कर रही थी, वो धारा 66 ए ही था। इसमें सोशल मीडिया और ऑनलाइन पर कोई आपत्तिजनक टिप्पणी करना कानून के दायरे में आता था, लेकिन इसकी परिभाषा गोलमोल थी, जिससे इसका दायरा इतना बढ़ा हुआ था कि अगर पुलिस-प्रशासन चाहे तो हर आनलाइन पोस्ट पर गिरफ्तारी हो सकती थी या एफआईआर हो सकती थी। ये धारा सूचना-प्रौद्योगिकी अधिनियम के तहत आती थी।

2015 में क्यों किया गया था इसे खत्म?

वर्ष 2015 में जब सुप्रीम कोर्ट ने इसे निरस्त किया तो उसका मानना था कि ये धारा संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) यानि बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी का हनन है। कोर्ट ने तब धारा को शून्य करार दिया था। इससे पहले धारा 66 ए के तहत आनलाइन तौर पर आपत्तिजनक पोस्ट डालने पर 03 साल की सजा का प्रावधान था।

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