कठपुतली सरकार चाहते हैं सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ?

संजय पांडे, वरिष्ठ पत्रकार

नई दिल्ली। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स, भारत के राजनीतिक क्षितिज पर एक नया पॉवर सेंटर बन रहे हैं। राजनीति की चूलें हिलाने का उनके पास एक सफल अमेरिकी मॉडल है। जिसे वे भारत में भी लागू करना चाहते हैं। बोलने की आजादी, ग्राहकों की प्राइवेसी की आड़ में पैसा बनाने के अलावा भी उनका अपना एक राजनीतिक एजेंडा है। विपक्ष की कमी से पैदा हुए शून्य को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ने पहचान लिया है। वे उस शून्य से लाभ उठाने को उत्सुक दिखते हैं।

इंदिरा गांधी के बाद सबसे शक्तिशाली माने जाने वाले प्रधानमंत्री मोदी के सामने पिछले करीब 7 वर्षों में विपक्ष लचर साबित हुआ है। पार्टी के ताकतवर नेता का कांग्रेस के डूबते जहाज से किनारा करने लगे हैं। राहुल को अपरिपक्व माने जाने लगा है। अन्य विपक्षी दलों के बड़े नेता, अपनी क्षेत्रिय छवियों में इस कदर उलझें है कि उन्हें मोदी का विकल्प बनने में वर्षों लगेंगे। पिछले कुछ वर्षों में सीएए और किसान आंदोलनों सरीखे चेहरा-विहिन आंदोलन इसी राजनीतिक शून्यता से उपजे हैं।

सवाल यह उठता है कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स विशुद्ध लाभ अर्जित करने के लिए बनाई गई थी वे राजनीति में क्यों उतरना चाहती हैं। कंपनियां अगर लाभ नही कमाएगी तो वे चलेगी कैसे, क्योंकि कंपनियां सरकार की तरह न तो नोट छापती और न ही टैक्स वसूल करती हैं। दरअसल यहीं पेंच है, मोटे मुनाफे के लालच में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स केंद्र में कठपुतली सरकार चाहते हैं। वे ऐसी सरकार चाहते हैं जो उनके ईशारे नाचे, ऐसे नियम बनाए जिससे उन्हें भविष्य में उनकी जेबें भर जाएं।

सत्ता संघर्ष में अमूमन राजनीतिक पार्टियां की शक्ल में समाज के विभिन्न वर्ग हिस्सा लेते हैं। पर अमेरिका की तरह अब भारत में भीसोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स सत्ता के संघर्ष में सीधे तौर पर शामिल हो गए हैं। दूसरी तरफ सत्ता बड़ी पतिव्रता है वह वह दो लोगों की गोदी में एक साथ नही बैठ सकती। यानी सत्ता के दो केंद्रों की कोई गुंजाइश नही होती। हमारा अनुभव हमें बताता है कि जहां दो पॉवर सेंटर बने वहां सत्ता के पुराने केंद्रों को ध्वस्त कर कोई नया एकलौता केंद्र पुन स्थापित हो जाता है।

देश में दूसरा राजनीतिक पॉवर सेंटर खड़ा नही हो पा रहा है। सोशल मीडीया प्लेटफॉर्म्स एक नया पॉवर सेंटर खड़ा करना चाहते हैं। दो पॉवर सेंटर होने से एक सहज बदलाव प्रक्रिया शुरू होगी। उस वक्त अपनी ताकत के हिसाब से वे नई व्यवस्था को प्रभावित कर सकेंगे। जाहिर है इसमें आम आदमी की कोई भूमिका नही होगी। विपक्षी दल इसे मामले में चुप्पी साधे हैं। वे इस संघर्ष में अपने लिए मौका तलाश रहे हैं,  पर वे यह भूल जाते हैं कि इस पूरे खेल की स्क्रिप्ट सोशल मीडीया प्लेटफॉर्म लिख रहे हैं और अंतत जीत उनकी ही होगी।

सरकार इस क्रांति को कुचल देना चाहती है। वे इस लड़ाई को सरकारी बनाम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के तौर पर देख रहे हैं, जबकि यह लड़ाई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स बनाम लोकतंत्र की है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के खेल में लोकतंत्र को ही सबसे अधिक नुकसान की संभावना है और मजे की बात यह है कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स प्रबंधन यह पूरी मुहिम बोलने की आजादी, व्यक्तिगत डेटा सुरक्षा और लोकतंत्र बचाने के नाम पर ही चला रहा है।

सोशल मीडिया के फायेद क्या हैं यह बताने की जरूरत नही। वो अपनी जगह है पर लोकतंत्र से छेड़छाड़ की इजाजत किसी को नही दी जा सकती। देश की सत्ता पर कौन काबिज होगा इसका रास्ता लोकतंत्र और चुनाव की गलियों से ही निकल सकता है। कोई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म अपनी तकनीकी ताकत और कम्युनिकेशन पर कब्जे का फायदा उठा कर हमारे दिमागों में यह नही डाल सकता कि हमें किसे वोट करना है। कोई कंपनी हमें यह नही बता सकता कि भारतीयों के लिए कौन सी सत्ता श्रेठ है। भारत का भविष्य भारतीय वोटर ही तय करेगा।