अटल बिहारी वाजपेयी के पहले चुनाव की कहानी

अटल बिहारी वाजपेयी भारत की राजनीति की आकाशगंगा में 5 दशकों तक दैदीप्यमान नक्षत्र की तरह रहे. भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी का आज जन्मदिन है. पूर्व प्रधानंमत्री वाजपेयी आज होते तो अपना 96वां जन्मदिन मना रहे होते. लेकिन वाजपेयी अब कथाओं, कहानियों, किवदंतियों और पॉलिटिकल कॉरिडोर में रचते-बसते और विचरते हैं. 16 अगस्त 2018 को दिल्ली में उनका निधन हो गया था.

वाजपेयी की जिंदगी के किस्से ‘आदर्श राजनीति, लोकप्रिय नेता, सह्रदय कवि’ पर चर्चा के दौरान जिक्र किए जाते हैं. इस वक्त जब देश में जनादेश एक पार्टी को मिला है और नरेंद्र मोदी इसके केंद्र हैं तो वाजपेयी का नाम इसलिए भी याद किया जाता है जिन्होंने 1999 में बतौर प्रधानमंत्री वैसे गठबंधन का नेतृत्व किया जिसमें 24 पार्टियां थीं और 81 मंत्री थे.

24 पार्टियां और 81 मंत्रियों को लेकर चलने वाला पीएम

इन दलों की क्षेत्रीय अस्मिताएं थीं, भाषा से जुड़े मुद्दे थे, नदियों के जल बंटवारे को लेकर विवाद था लेकिन वाजपेयी नाम के विशाल ‘वटवृक्ष’ के नीचे सारी पार्टियां, सारी विचारधाराएं एक रहीं. वाजपेयी के व्यक्तित्व करिश्मे ने ‘फेविकोल’ का काम किया और इस सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया. वे गठबंधन की सरकार को 5 साल तक चलाने वाले पहले पीएम रहे. 

वाजपेयी वो स्टेट्समैन थे जिनकी लोकप्रियता ने पार्टी, विचारधारा और देश की सीमाओं को पार कर लिया था. वाजपेयी का विरोध करते वक्त भी विपक्षी उनकी सच्चरित्रता, नैतिक पूंजी, स्वच्छ छवि का अतिक्रमण नहीं कर पाते थे.

ऋषि गालव की तपोभूमि ग्वालियर में जन्म

वाजपेयी का जन्म ऋषि गालव की तपोभूमि ग्वालियर में 25 दिसंबर 1924 में हुआ था. 1942 में 18 साल की आयु में वे स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुए. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वाजपेयी 23 दिनों के लिए जेल गए.

1947 में जब देश आजाद हुआ तो वाजपेयी उस दौरान कानपुर के डीएवी कॉलेज में एमए-राजनीति विज्ञान की पढ़ाई कर रहे थे. पढ़ाई के दौरान ही युवा अटल आरएसएस के संपर्क में आए और राजनीति से जुड़ गए. 1957 में अटल बिहारी वाजपेयी जनसंघ के टिकट पर पहला चुनाव लड़े. तब वाजपेयी मात्र 33 साल के थे. 

जनसंघ की स्थापना श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 21 अक्टूबर 1951 को की थी. 1957 आते आते संपादक वाजपेयी, वाक और संप्रेषण कला में निपुण हो चुके थे. राजनीतिक विचारधारा में उन्होंने दक्षिण का सिरा पकड़ा और स्वाध्याय के बल पर इसे मांजने में जुटे हुए थे.

नौजवान वाजपेयी के ओज और तेजस को जनसंघ के नेताओं ने तुरंत पहचान लिया. जनसंघ वाजपेयी को हर हाल में संसद में चाहता था. इसलिए 1957 में जनसंघ ने वाजपेयी को तीन सीटों से मैदान में उतारा. ये सीटें थी उत्तर प्रदेश की मथुरा, बलरामपुर और लखनऊ.

डेमोक्रेसी की नर्सरी में वाजपेयी

1957 भारतीय लोकतंत्र का शिशुकाल था. 52 में पहला चुनाव हुआ था. देश में डेमोक्रेसी आकार ले ही रही थी. नामांकन, प्रचार, मतदान, वोटों की गिनती सब कुछ नया था. पराधीन भारत में अंग्रेजों की सरपस्ती में कुछ चुनाव हुए थे, लेकिन भारत से लोकतंत्र का पहला वास्ता 1952 में ही हुआ था. इसी लोकतंत्र की नर्सरी में वाजपेयी अपना राजनीतिक भाग्य आजमाने को उतरे थे.

लोकतंत्र के इसी बैकड्राप में बेहद सीमित संसाधनों के साथ वाजपेयी 1957 का चुनाव लड़ने उतरे. आज के जमाने में कारों के काफिले और बाइक रैली को देखकर आदी हो चुकी जनता को शायद ही यकीन हो कि उस जमाने में नेता साइकिल, बैलगाड़ी और पैदल तक से प्रचार करते थे. जीप तो प्रत्याशी को ही मिल पाती थी.

एक जीप पार्टी ने दी, एक किराये पर ली

बलरामपुर में वाजपेयी का मुकाबला कांग्रेस के हैदर हुसैन से था. जनसंघ का चुनाव चिह्न दीपक था. पार्टी ने बड़ी उम्मीदों से जनसंघ को बलरामपुर में दीपक जलाने की जिम्मेदारी दी थी.

वाजपेयी ने अपना मैराथन प्रचार अभियान शुरू किया. ये मतदान 24 फरवरी से 9 जून के बीच हुआ. यूपी में कई जगह बारिश हो रही थी. वाजपेयी का प्रचार वाहन जीप अक्सर गांवों, शहरों और मोहल्लों की कच्ची सड़कों पर खराब हो जाता था. वाजपेयी जी ने 16 साल पहले 2004 के लोकसभा चुनाव से पहले एक इंटरव्यू में इन जीपों की कहानी बताई थी.  तब वाजपेयी ने कहा था कि ये चुनाव अच्छी तरह से याद है. उन्होंने कहा था, “हमारे पास दो जीपें थीं…एक पार्टी ने दी थी…एक किराए पर ली थी…और कोई साधन नहीं था, कार्यकर्ता जरूर थे.”

अतीत की यादों में खोये, चेहरे पर हल्की मुस्कान लिए वाजपेयी ने उस इंटरव्यू में उन दिनों को याद करते हुए कहा था, “जिस दिन मतदान हो रहा था, उस दिन मेरी जीप जंगल में कहीं खराब हो गई…तो मतदान की समाप्ति तक मैं पहुंच नहीं सका…लेकिन मैं चुनाव जीत गया.”

वाजपेयी ज्यादातर पैदल चलते और लोगों से मिलते. जनसंघ कार्यकर्ता साइकिलों पर 50-50 का समूह बनाकर निकलते. अटल जी ने जी-तोड़ मेहनत की. जनसंपर्क अभियान चलाया. लोगों से घर-घर जाकर वोट मांगे. अटल जी के सहयोगी रहे लाटबख्श सिंह ने 2 साल पहले बताया था कि पूरा संसदीय क्षेत्र ही अटल जी का घर हो गया था. जहां रात होती वहीं रुक जाते फिर सुबह नए क्षेत्र के लिए निकलते.

जब प्रत्याशी वाजपेयी ने जीप को धक्का देकर किया स्टार्ट

जनसंघ ने वाजपेयी जी को जो जीप दी थी वो हर किलोमीटर-दो किलोमीटर चलकर बंद हो जाया करती थी. फिर उसे धक्का लगाया जाता था, तब जाकर जीप चलती थी. एक किस्सा है कि एक बार वाजपेयी जी की बलरामपुर सदर विधानसभा क्षेत्र के सिंघाही गांव में चुनावी सभा थी. वाजपेयी अपनी लकी जीप पर खेतों के रास्ते यहां के लिए निकले. लेकिन जीप धोखा दे गई. कार्यकर्ता जीप को धक्का लगाने लगे. वाजपेयी जी झेंप गए और नीचे उतरकर खुद भी जीप को धक्का लगाया. बड़ी मशक्कत के बाद जीप स्टार्ट हुई.

अब तो काफिला चाहिए, कहां से आएगा?

31 मार्च 1998 को बतौर प्रधानमंत्री लोकसभा में चुनाव सुधार पर चर्चा के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी ने इस संस्मरण को एक बार और साझा किया था. उन्होंने कहा था, “वर्ष 1957 में मैंने पहली बार चुनाव लड़ा. उस समय मेरे पास दो जीपें थीं, पार्टी ने कहा कि बलरामपुर की सीट अच्छी मालूम होती है, लड़ जाओ, हम चले गए. एक जीप साथ ले गए थे, एक जीप वहां जुटा ली और दो जीपों से चुनाव लड़ा. पूरे क्षेत्र में घूमे और जीत गए. दो जीपों से.”

प्रधानमंत्री वाजपेयी ने कहा कि अब तो काफिला चाहिए, कहां से आएगा? क्या काले धन से चुनाव नहीं लड़ा जा रहा है? हम सब दिल पर हाथ रखकर सोचें. इसलिए जब संविधान समीक्षा की चर्चा होती है तो एक चुनाव प्रणाली…”

नेहरू के जलवे के बीच 2 जगह हारे, लेकिन बलरामपुर में विजयी

1957 वो दौर था जब पंडित नेहरू न सिर्फ भारत के बल्कि एशिया के नायकों में शामिल थे. पंडित जी की छवि उस नेता के रूप में थी जो तीसरी दुनिया के देश रहे भारत के लिए करिश्माई नेतृत्व लेकर आया था. इस दौर में कांग्रेस को चुनौती देना आसान नहीं था

तीन सीटों से लड़ रहे वाजपेयी लखनऊ-मथुरा से हार गए. लेकिन बलरामपुर की जनता को ‘दीपक’ की टिमटिमाहट में उम्मीद की लौ दिखी थी. इस चुनाव में वाजपेयी को 1 लाख 18 हजार 380 वोट मिले, जबकि उनके निकटतम प्रतिद्वंदी कांग्रेस के हैदर हुसैन को 1 लाख 8 हजार 568 वोट मिले. इस तरह वाजपेयी लगभग 8 हजार वोटों से चुनाव जीते.

बलरामपुर ने चुना भारत के भविष्य का प्रधानमंत्री

एक कड़े मुकाबले में बलरामपुर के मतदाताओं ने भविष्य के भारत के प्रधानमंत्री का चुनाव किया था. इस जीत के साथ नवयुवक वाजपेयी ने संसद की ओर प्रस्थान किया. संसदीय राजनीति की उनकी ये यात्रा 1957 से 2009 तक जारी रही.