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सब कुछ सीखा हमने, ना सीखी 'होशियारी'…- Amar Bharti Media Group विशेष

सब कुछ सीखा हमने, ना सीखी ‘होशियारी’…

‘ग्रेटेस्ट शोमैन’ राज कपूर की पुण्यतिथि पर विशेष

सुमंगल दीप त्रिवेदी

जब कभी कोई आपको ठग कर चला जाता है और आप असहाय से रह जाते हैं, तो अचानक आपको भी ये गीत याद आ ही जाता होगा, ‘सब कुछ सीखा हमने, ना सीखी ‘होशियारी’, सच है दुनियावालों, कि हम हैं अनाड़ी।’ जिंदगी की हक़ीक़तों को सिने पर्दे पर हूबहू उतार कर लोगों के दिलों में उतर जाने वाले हिन्दी सिनेमा के युगपुरुष कलाकार राजकपूर की पुण्यतिथि पर यह गीत आज बरबस याद आ रहा है।

जब राजकपूर को पड़ा ज़ोरदार तमाचा

हिन्दी सिनेमा के सबसे जानदार और शानदार निर्देशकों में राज कपूर का नाम शुमार है। इसलिए, उन्हें ग्रेटेस्ट ‘शोमैन’ भी कहा जाता है। पृथ्वीराज कपूर जैसे मशहूर अभिनेता के पुत्र होने के बावजूद वे पहली ही फिल्म में हीरो के रूप में लांच नहीं हुए थे। उन्होंने निर्देशक केदार शर्मा के यहां क्लेपर बाय के रूप में काम शुरू किया था। यहां तक कि एक बार ज्यादा जोर से क्लेप करने पर उन्हें केदार शर्मा का जोरदार थप्पड़ भी खाना पड़ा था।

फ़िल्म ‘आवारा’ से मिली लोकप्रियता

कुछ सालों बाद, वे केदार शर्मा की ही फिल्म ‘नीलकमल’ में हीरो के रूप में आए। 24 साल की उम्र में राजकपूर ने ख़ुद ही फ़िल्म ‘आग’ (1948) का निर्माण और निर्देशन भी किया। 1950 में चेम्बूर में राजकपूर ने अपने आर. के. स्टूडियो की स्थापना की। सन 1951 में उन्होंने फ़िल्म ‘आवारा’ बनाई। इस फिल्म ने राजकपूर को काफी लोकप्रियता दी। यह उनकी सबसे बेहतरीन फिल्मों में से एक है।

हर किरदार में ज़िन्दा रही इंसानियत

फ़िल्म ‘बरसात’ (1949) फिल्म से राजकपूर और नर्गिस की जोड़ी बन गई थी। राज कपूर ने ‘श्री 420’ (1955), ‘जागते रहो’ (1956) व ‘मेरा नाम जोकर’ (1970) जैसी सफल फ़िल्मों का निर्देशन, लेखन और अभिनय भी किया। वे ‘चार्ली चैपलिन’ से काफी प्रभावित थे। उनके अभिनय में उनकी स्पष्ट छाप दिखाई देती है। राजकपूर इसलिए महान थे कि उनकी लगभग सभी फिल्मों में कोई-ना कोई सन्देश होता था। यहां तक की वे अपराधी का भी रोल कर रहे होते थे तो भी ईमानदार व मानवता को उनके किरदार नहीं छोड़ते थे।

हर कहानी अलग, हर विषय अलग

उनकी फिल्मों की सबसे खास बात उसकी कहानी होती थी। वे समाज के अलग-अलग विषयों को दिखाते थे। जैसे श्री ४२० में जमाखोरी का मामला था। सत्यम शिवम सुंदरम में निम्न जाति का मसला दिखाया। प्रेम रोग में विधवाओं की स्थिति को बहुत ही संवेदनशील ढंग से पेश किया गया था।

गीतों से रूसियों को बना लिया दीवाना

राजकपूर की फिल्मों की सफलता और लोकप्रिय होने की एक सबसे बड़ी वजह उनका कर्णप्रिय गीत- संगीत भी रहा है। राजकपूर को संगीत की अच्छी समझ थी। उन्होंने बहुत ही शानदार टीम बनाई थी। गायक मुकेश तो जैसे राजकपूर की आवाज थे। उनकी लगभग सारी फिल्मों में मुकेश ने ही गीत गाए थे। वहीं संगीत की बागडोर शंकर जयकिशन के पास थी। गीत लिखने के लिए शैलेंद्र थे। इन लोगों की टीम ने एक से बढ़कर एक यादगार गीत दिए हैं। जिन्हें हम आज भी बड़े शौक से सुनते हैं। मेरा जूता है जापानी.. गीत काफी लोकप्रिय हुआ था। राजकपूर पहले ऐसा ऐ अभिनेता थे जो विदेश में भी प्रसिद्ध थे। सोवियत संघ में उनके काफी फैन थे।

सादगी जो आज भी मिसाल है…

राजकपूर की एक बात जो सबसे ज्यादा भाती है वो है उनका एक सीधा-साधा इन्सान का किरदार निभाना। आपको तीसरी कसम का हीरामन तांगावाला याद है। इतना सहज अभिनय ही उनका सबसे बड़ी पूंजी थी। मेरा नाम जोकर के राजू के भोलेपन भी आप फिदा हुए बिना नहीं रह पाएंगे।

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