कविता विशेष: ‘ख़ामोश हूं’

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ख़ामोश हूं मरा नहीं हूं
जाग रहा हूं सोया नही हूं

रात हूं दिन नही हूं
ठहरा हूं रुका नहीं हूं
पतझड़ हूं सूखा पेड़ नहीं हूं
उम्मीद हूं टूटा नहीं हूं
ख़ामोश हूं मरा नहीं हूं।
जाग रहा हूं सोया नहीं हूं।

पानी में पत्थर फेंको तो लहरे दूर तक जाती है
दर्द को जितना छेड़ो आवाज अंदर तक जाती है
पिरो कर दर्द की चादर को
हर रात ओढ़ा करता हूं
नींद भले ही ना आए
पर हर रात में सोया करता हूं
उम्मीद का दामन छूटे नहीं
इस कोशिश में लगा रहता हूं

ख़ामोश हूं मरा नहीं हूं
जाग रहा हूं सोया नही हूं।

तोड़ दूं सारी बंदिशे
कर लूंगा पूरी हसरतें
सांस अभी रुकी नहीं है
जीत अभी हुई नहीं है
शौक तो सब रखते हैं जीने का
बस मैं शौक रखता हूं नया इतिहास रचने का

ख़ामोश हूं मरा नहीं हूं
जाग रहा हूं सोया नहीं हूं।…….

             ---- प्रदीप भास्कर-----

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